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Ghughuti Festival Uttarakhand |
Ghughuti Festival : उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में हर साल माघ माह की संक्रांति पर एक त्योहार मनाया जाता है, जिसे 'घुघुती त्यार' या घुघुतिया त्योहार कहते हैं। यहाँ, इस त्योहार को बड़े हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। कौआ इस त्योहार का मुख्य आकर्षण होता है। बच्चे इस दिन कौओं को आटे और गुड़ से बने इस विशेष प्रकार के पकवान को 'काले कौआ काले, घुघुती माला खा ले' की आवाज देते हुए खिलाते हैं।
घुघुती त्योहार (Ghughuti Festival) मुख्यतः कुमाऊं के नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चम्पावत जनपद में मनाया जाता है। इसे 'पुषूड़िया त्योहार' भी कहते हैं। वहीं गढ़वाल मंडल में मकर संक्रांति के दिन मनाये जाने वाले इस त्योहार को मकरैणी, घोल्डा, घ्वौला, चुन्या त्यार के नाम से जानते हैं।
घुघुती क्या है
यूँ तो 'घुघूती' उत्तराखंड में एक लोकप्रिय पक्षी यानी चित्रोखा फाख्ता (Spotted Dove) को कहते हैं, वहीं मकर संक्रांति के अवसर पर मनाये जाने वाले वाले त्योहार को भी 'घुघुती' , घुघुती त्यार अथवा घुघुतिया त्योहार कहते हैं। इस दिन यहाँ के बच्चों द्वारा खासकर कौओं को खिलाने के लिए बनाये जाने वाले एक विशेष प्रकार के पकवान को 'घुघुत' या 'घुघुते' कहते हैं।
घुघुती त्योहार की परम्पराएं
घुघुती त्योहार (Ghughuti Festival) मनाने से एक दिन पूर्व गेहूं के आटे को घी और गुड़ के शरबत में गूथकर छोटी-छोटी लोइयों के माध्यम से एक खास प्रकार आकृति तैयार की जाती है, जो हिंदी के अंक ४ (चार) जैसी होती हैं। इन्हें घुघुते कहते हैं। फिर क्षेत्र की परम्परानुसार पौष माह की मासांति की शाम या मकर संक्रांति की सुबह इन घुघुतों को तेल में तला जाता है। लोग अपने घरों के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं और घर में बने अन्य पकवानों के साथ इन घुघुतों को खिलाने के लिए कौओं को आमंत्रित करते हैं। यह आमंत्रण घर के बच्चे इन पंक्तियों को ऊँचे स्वर में देते हुए कहते हैं -
काले कौओं काले,
घुघुती माले खाले।
ले कौवा बड़ा,
मीकैं दे सुनक घड़ा।
अर्थात - 'आओ कौआ आओ, मेरी घुघूती की माला को खाओ। आप मेरे घर के बने पकवान इस बाड़े को खाओ और मुझे इसके बदले में एक सोने का घड़ा दो यानी धन -संपति प्रदान करो। '
इन पंक्तियों को सुनते ही कौवे दूर से उड़ते हुए घर के पास आकर आटे घुघुतों को बड़े चाव से खाते हैं। घर पर कौआ का आना बेहद शकुन माना जाता है। कौवे यहाँ अपने पितरों के रूप माने जाते हैं। मान्यता है इस त्योहार पर पितृ लोग सुबह-सुबह गंगा स्नान के बाद त्योहार खाने आते हैं।
घुघुतों को कौओं को खिलाने के बाद इन्हें एक घागे में फल-फूल के साथ पिरोकर माला तैयार की जाती है और बच्चे इस माला को गले में धारण करते हैं। इन माला में घुघुते के अलावा हुड़के, ढाल-तलवार आदि की आकृति बनाकर भी पिरोये जाते हैं।
कुमाऊं में घुघुते को गांव-पड़ोस के लोगों और अपने मित्रों, सगे-सम्बन्धियों को भेंट करने की ख़ास परम्परा है। वहीं ईजा (माँ), अम्मा (दादी-नानी) लोग दूर अलग-अलग प्रांतों में बसे अपने लाड़ली और लाड़लों के लिए बड़े प्यार के साथ भेजती हैं। इस अवसर पर लोग एक दूसरे को
शुभकामनायें प्रेषित करते हैं।
घुघुती त्योहार की कहानी
उत्तराखंड में
घुघुती त्योहार क्यों मनाया जाता है, कब से इसकी शुरुआत हुई ? इसके पीछे एक लोकगाथा प्रचलित है। कहा जाता है कि चंद वंशीय राजा कल्याणचंद की कोई संतान नहीं थी। राजा का कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण उसका सेनापति सोचता था कि राजा की मृत्यु के बाद उसका पूरा राज्य उसे प्राप्त हो जायेगा। एक बार राजा कल्याण चंद बागेश्वर स्थित बाबा बागनाथ के धाम पुत्र प्राप्ति की इच्छा लेकर गए। भगवान ने उनकी इच्छा पूर्ण की और पुत्र प्राप्ति हुई।
राजा के पुत्र का नाम निर्भय चंद रखा गया। लेकिन उसकी माँ उसे प्यार से घुघुती नाम से पुकारती थी। घुघूती को मोती की माल बेहद पसंद थी। जब भी घुघुती रोता तो माँ कहती - 'काले कौआ काले, घुघुती माला खा ले' यानी आपको कौआ, इस घुघूती की माला को खाओ। यह सुनते बच्चा घुघूती चुप हो जाता। धीरे-धीरे कौआ भी घुघूती को पहचानने लगा।
वहीं मंत्री, राजा के उत्तराधिकारी निर्भय से चिढ़ने लगा और उसे मारने का षड्यंत्र रचने लगा। एक दिन उसने निर्भय का अपहरण कर लिया और उसे एक जंगल में छिपा कर आ गया। इस घटना को कौवे ने देख लिया और उसने निर्भय के गले से मोती की माला छीन ली। उधर राजमहल से निर्भय के अचानक गायब होने से राजा परेशान हो गया। उसने अपने सभी सैनिकों और गुप्तचरों को बच्चे की खोज में लगा दिए।
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तभी रानी की नजर कौवे की कांव-कांव और चोंच में मोती की माला पर पड़ी। वह उड़कर बार-बार जंगल की ओर जाता। सैनिकों को निर्भय के जंगल में होने का संकेत मिल चुका था। वे कौवे के साथ वहां पहुँच गए जहाँ राजकुमार को रखा गया था। मंत्री के इस षड़यंत्र का भंडाफोड़ हो गया। राजा ने मंत्री को फाँसी देकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कौओं को खिला दिए और साथ ही जनता को आदेश दिया कि पूरी प्रजा को विशेष पकवान बनाकर कौओं को खिलाये।
लोकगाथा के अनुसार सरयू पार वालों का राजा का यह आदेश पौष माह की मासांति को मिल गई, उन्होंने उसी शाम आटे और गुड़ के विशेष पकवान बनाकर मकर संक्रांति की सुबह कौओं को खिलाये। जबकि सरयू वार वालों को एक आदेश एक दिन बाद मिला। उन्होंने मकर संक्रांति के दिन घुघुते बनाये और अगले दिन कौओं को खिलाये। इसीलिए आज भी यह परम्परा कायम है।
यह कथा भी प्रचलित है
एक जनश्रुति के अनुसार उत्तराखंड में एक राजा थे, उन्हें उनके ज्योतिषी ने बताया कि उन पर मारक ग्रह दशा लगी हुई है। यदि वह घुघुतों यानी फाख्ता को मारकर उसके टुकड़े मकर संक्रांति के दिन कौओं को खिलाये तो यह दशा टल सकती है।
राजा बेहद दयालु था, वह माघ के पवित्र महीने में निर्दोष घुघुते को नहीं मारना चाहता था। उसको एक उपाय सुझाया गया कि उसकी प्रजा यदि प्रतीकात्मक रूप से घुघुते कौओं को खिलाये तो यह काम बन सकता है। राजा के आदेश पर आटे और गुड़ से घुघुते तैयार किये गए और मकर संक्रांति के अवसर पर कौओं को खिलाये गए। तभी ये हर साल घुघुतिया त्यौहार मनाने की परम्परा शुरू हो गई।
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वर्तमान में घुघुती त्योहार और कौवे
घुघुती त्योहार (Ghughuti Festival) बदलते परिवेश में भी बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। गांव घरों में मकर संक्रांति के दिन लोग घुघुते खाने के लिए कौओं को आमंत्रित करते हैं। लेकिन एक चिंता का विषय है जहाँ कौओं की इतनी मान्यता है वहां वर्तमान समय में कौओं की प्रजाति खतरे में है, पहले की भांति आज कौओं का झुण्ड घुघुती की माला खाने नहीं पहुँचते।
घुघुती त्योहार उत्तराखंड की संस्कृति और यहाँ की समृद्ध परम्पराओं का एक प्रतीक पर्व है। यह पर्व बच्चों को बचपन से ही पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्रेम करने की सीख देता है, वहीं उनके अंदर संवेदनशीलता और दयालुता का विकास करता है।