गिरीश तिवारी 'गिर्दा' द्वारा दिए गए नयी पीढ़ी को महत्वपूर्ण सन्देश।

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हम सबके प्रिय जनकवि, लेखक, संस्कृतिकर्मी और नाटककार गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली हवालबाग (उत्तराखण्ड) में हुआ। उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवाडी और माता का नाम जीवंती तिवाडी था। 'गिर्दा'  की शुरुआती पढ़ाई अल्मोड़ा में हुई। बचपन से ही उनमें कलात्मक अभिरुचि थी। पढ़ाई के बाद उन्होंने कुछ छोटी-मोटी नौकरिय़ां की, अन्तत: नैनीताल में 'गीत एवम नाट्य प्रभाग' में नियुक्त हुए। चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन और नदी बचाओ आदि आंदोलनों में गिर्दा सक्रिय रहे और उनके लिखे गीतों और कविताओं ने भी इन आन्दोलनों को ऊर्जा और सही दिशा दी। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के समय भी गिर्दा ने अपनी रचनात्मकता के जरिए सशक्त योगदान दिया।

नई पीढी के युवाओं को प्रोत्साहित करने और यथासंभव रचनात्मक सहयोग देने में गिर्दा को विशेष खुशी होती थी। 22 अगस्त 2010 को हल्द्वानी में उनका निधन हुआ।


गिर्दा की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व को लोगों तक पहुंचाने के उद्देश्य से उनका एक भाषण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 

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25 नवम्बर 2006 को नैनीताल में सामाजिक-साहित्यिक संस्था 'क्रिएटिव उत्तराखण्ड' द्वारा आयोजित पहले सेमिनार में कवि और संस्कृतिकर्मी गिरीश तिवारी 'गिर्दा' द्वारा दिए गए इस अध्यक्षीय भाषण के माध्यम से नई पीढ़ी को कई सन्देश दिए, जो आज 18 साल बाद ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं। इस सेमिनार का विषय था 'भूमण्डलीकरण के दौर में आंचलिकता की चुनैतियां'

गिर्दा भाषण की शुरुवात करते हुए कहते हैं -

अब शुरुआत मैं ही करूंगा..मित्रो, अगर तुम लोगनले जरा ले पेल्लि ऐ बैर क्वै ले नान्तिनान ले... हमारी आपस में बात की होती तो आज जो ये बहुत ही सुन्दर सन्देश देश और दुनिया को जाता.. मैं त भौत भितर बटि.. अन्दर से अत्यन्त भावुक हूं इसलिए मेरी बातों के अन्तरवस्तु को पकड़ने की कोशिश करना.. एक तो ये कि......... मेरा निवेदन है कि मुझे मंच पर बैठने को विवश मत करना, दूसरी बात ये है कि हमको ऐसा कुछ मालूम नहीं था। नहीं तो मैं आखिरी दम तक तुम्हारे साथ ...बाजार में तो क्या छोड़ता भाई!!!

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मुझे किसी ने ... मतलब इस प्रकार का कोई वो ही नहीं था.. बताइये इतना सुन्दर सन्देश लेकर के आप यहां आए हैं.. मैं तो इसी वाक्य से क्रिएटिव उत्तराखण्ड,,, रचनात्मक उत्तराखण्ड.. रचनात्मक छ ऊ.. मनुष्य की यात्रा है, पूरी विकास की यात्रा है इस शब्द के भीतर. और आगे निरन्तर रचना होtI जानी है इस संसार में। ये संसार तो बहुत दूषित कर दिया है अरचनात्मक लोगों ने।


तो मित्रों मैं नहीं रोक पाया इसलिए मैंने चारू (चारू तिवारी) से कहा कि शुरुआत मैं करूंगा.. जब तुमने बिठा दिया तो मैं ही शुरुआत भी करता हूं,, जिस लगन से, जिस भावना के साथ तुम लोग यहां आए.. बल्कि मैं हल्फ़िया कहता हूं तुम लोगों के सामने.. हल्फ़िया… कि मैं तल्लीताल.. अगर ऐसा मालूम होता कि तुम इस रूप से आ रहे हो, तो हम लोग तुमको वहां हनुमानगढी के मन्दिर में खड़े मिलते.. हम तुम्हारा स्वागत करते.. इस रचनात्मक चेतना का स्वागत करते भाई.. हमको ऐसा मालूम नहीं था.. इसलिए हम वहां पहुंच नहीं पाए.. हमको माफ़ करना भैया.. हम तुम्हारा स्वागत करते हैं,, तुम्हारे दिल की, तुम्हारे दिमाग की, तुम्हारी सारी जो आन्तरिक भावनाएं उत्तराखण्ड के लिए, पहाड़ के लिए, देश के लिए, दुनिया के लिए और आदमी के लिए जो भावनाएं हैं, उन भावनाओं को नमन करता हूं। नमन करते हैं हम,, हाथ जोड़ते हैं उस भावना को। क्योंकि इस दुनिया को बेहतर मनुष्य ही बनाता है। गुफ़ा से लेकर आज इस ATI (आयोजन स्थल) तक का निर्माण मनुष्य ने किया है, इसलिए मैं उस भावना को नमन करता हूं। और जब तुमने दिल लगा दिया है.. हें!! जब दिल में तुम्हारी इतनी बड़ी पीड़ा पैदा हो गई है, तो तुम से दिल ही की बात करता हूं.. दिमाग को किनारे रखता हूं।

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बहुत सुन्दर लग रहा है मुझे.. इसलिए मैं तुमसे कह रहा हूं साथियो..


दिल लगाने में वक्त लगता है (बात ततौके छु बस दिल लागिज्यो, जां दिल अगर लागि गयो, आ बबा हो.. दिल छु ऊ.. सबकुछ छु ऊक भितरि, सार ब्रह्माण्ड ऊ भितर निहित छ)


दिल लगाने में वक्त लगता है, डूब जाने में वक्त लगता है..

हवाई जहाज ले मनुष्यकि एक विकास यात्रा छु लेकिन डुबि जानु.. मण्डुप लगूंन,, आ बाबा हो ,, आइ कि छु येक भितरि निकाओ..आ बाबा हो समुद्र मन्थन जस रूपक हमार सामन छन.. तो

दिल लगाने में वक्त लगता है, डूब जाने में वक्त लगता है
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता, वक्त आने में वक्त लगता है


तो मित्रों इतने सचेत तुम लोग हो,, कि वक्त की रफ़्तार को सही समय पर. ये कदम उठा रहे हो तो वक्त की नब्ज़ तुमने पकड़ी.. वक्त जाने में कुछ नहीं लगता.. 6 साल बीत गए उत्तराखण्ड को बने हुए.. कितने साल बीत गए.. ऐसे प्रोफ़ेसर बैठे हैं जिनके सामने तो मुझे बोलने की तो मुझे तमीज हीं नहीं.. ये बताएंगे इतने साल बीत गए हिन्दुस्तान की आजादी के,, जहां था, वहीं का वहीं रुक गया है देश। तो तुम टैम पर नब्ज़ पकड़ दे रहे हो मरीज की.. इसलिये यारो तुमसे.. तुम्हारे लिए मेरे पास कहने को शब्द नहीं.. और मैं आज अन्तर्मन से तुम्हारे सामने ये स्वीकार कर रहा हूं.. कि इतना सन्तोष हो रहा है मुझे तुम सबलोगों को यहां पर देखकर. मैं बैठ पाऊं तुम्हारे साथ उतनी देर तक न बैठ पाऊं .. मैं तुमसे उतनी सब चीजें कह पाऊं न कह पाऊं.. ;लेकिन मैं अगर उठ कर इधर उधर चला भी गया.. तो मुझे क्षमा करना.. इस आने वाली चेतना का विपुल सम्पदा इस पहाड़ मे हम स्वागत करते हैं.. ये पहाड़ तुम्हारा है.. इसे संवारो.. क्यों संवारो? ये पहाड़ कालीदास का भी है.. ये पहाड़ सिर्फ़ उत्तराखण्ड का नहीं है.. हिमालय सिर्फ़ हमारा नहीं है.. हिमालय सिर्फ़ हिन्दुस्तान का नहीं है.. हिमालय सिर्फ़ एशिया का नहीं है। हिमालय पूरे विश्व का है और पूरा विश्व हिलामलय से प्रभावित होता है।


अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पुर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः

(धरती में .. यो कालीदास कुनो.. धरती में इस ठाड़ है रो हिमालय)


तै है ठुलि बात हम कि कै सकनु हिमालयाक बार में.. पर इतुक हम जरूर कुनूं.. यो मुनाफ़ाखोर..तो शब्द तुमोल तै में लेखि ले राखो भूमण्डलीकरण.. बांकि बोलाण झन दिया मैं के.. चुप है जा कै दिया.. जतुक ले जनि छा.. रोकि दिया.. मैं त एक-एक बात में एक एक घन्टा लगै द्यूल.. लेकिन अस्त्युत्तरस्यां जो मैं कुणैछ्यु.. लेकिन आज हिमालय की दशा वो नहीं है.. आज का हिमालय और कालीदास का हिमालय.. देखिए आप.. दोनों को तुम्हारे सामने रखता हूं मित्रो.. तुम समाज के मुख हो.. समाज को संचालित राजनीति करती है, लेकिन समाज भिन्न भिन्न मुखो से बोलता है.. कभी म्यर पहाड़ से बोलता है.. कभी शेखर पाठक के स्लाइड शो से बोलता है.. कभी राजीव (राजीव लोचन साह) के नैनीताल समाचार से बोलता है.. कभी जनाआन्दोलनों से बोलता है। कभी नरैन (नारायण सिंह जंतवाल) के भाषणों से बोलता है.. इतना बहुमुखी है.. कई मुखों से बोलता है समाज। तो उसी समाज की एक बात आपके सामने रख रहा हूं,, एक तरफ़ बटि मैं ल को अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा.. दुसरि तरफ़ बटि मैं कुनयु ये पहाड़ाक हाल कि है रईं?

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ढुंग बेचा, माट बेचो, बेची खै बज्याणी. लिस खोपी-खोपी मेरी उधेड़ी दी खाल


यो हिमालय कुनो नान्तिनो तुमन थें, आने वाली पीढ़ियों, आने वाले हिमालयो, ये तुमको सन्देश दे रहा है हिमालय .. कि-

ढुंग बेचा, माट बेचो, बेची खै बज्याणी, लिस खोपी - खोपी मेरी उधेड़ी दी खाल
न्यौलि, चांचरि, झ्वाड़ा, छपेलि बेचा म्यारा, अरे बेचि दी यारो, पाणि ठण्डि बयार


पत्थर बेचा, मिट्टी बेची, बेचे जंगल हरे बांज के, लीसा गढ़ांन के घावों से चिर गई खाल मेरी, संगीत-गीत सब बेच दिया.

?????  तुमन थें कुनयु कि आओ हमार कानन में चड़ि बेर अघिल के जाओ.. हिमाल कें और उच्च करो.. और उच्च करो.. और उच्च करो। 


ये थे गिरीश तिवारी 'गिर्दा' द्वारा दिए गए नयी पीढ़ी को महत्वपूर्ण सन्देश। यह भाषण हमें क्रिएटिव उत्तराखंड के श्री हेम पंत के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। गिर्दा का एक प्रेरक गीत पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएँ - उत्तराखंड मेरी मातृभूमि।