कुमाउनी लोक कथा : सास-ब्वारी खेत।

Kumaoni Folk Tale : Saas Bwari Khet

उत्तराखंड की लोककथायें, जिन्हें हम "कुमाऊंनी और गढ़वाली लोक कथायें" भी कहते हैं, यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रमुख हिस्से हैं। यहाँ ये कथायें पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रसारित होती रही हैं। इन्हीं में 'सास-ब्वारी खेत' के नाम से एक लोक कथा प्रचलित है, जिसका सम्बन्ध बागेश्वर के समीप बिलौना सेरा से है। सरयू नदी के किनारे बिलौना के लम्बे-चौड़े समतल खेत पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं। यहाँ के खेतों के मध्य एक खेत को 'सास- ब्वारी गड़' यानि सास-ब्वारी खेत कहा जाता है। जिसके सम्बन्ध में एक मार्मिक लोककथा प्रचलित है।  

सास-ब्वारी खेत (Saas Bahu Khet Bageshwar) के नाम से प्रसिद्ध लोककथा एक ग्रामीण सास-बहू के जीवन की है, जिन्होंने अपनी जीवन लीला खेतों में काम करते-करते खत्म कर दी। यह लोककथा एक सत्य घटना पर आधारित है। जो इस प्रकार है -

लोक कथा : सास-ब्वारी खेत

बात कुमाऊँ के बागेश्वर क्षेत्र की है। आषाड़ का महीना चल रहा था, ग्रामीण क्षेत्रों में मडुआ और धान की गुड़ाई अपने चरम सीमा पर थी। बागेश्वर के बिलौना की एक बूढ़ी महिला को चिंता सता रही थी कि सभी लोगों ने अपने-अपने खेतों में धान गुड़ाई का कार्य पूर्ण कर लिया है और छूटा है तो सिर्फ उसका खेत। यह उसके लिए इज्जत का भी सवाल था। रात में ही उस बूढ़ी महिला ने अपनी बहु के साथ एक योजना बनाई कि वे दोनों मिलकर चार दिन का काम तेजी से करके एक दिन में पूर्ण करेंगे। 

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बूढ़ी सास ने अपने परिवार की मान-मर्यादा एवं इज्जत की दुहाई देते हुए अपनी बहु को इस कार्य के लिए राजी कर लिया। योजना यह थी कि दूसरे दिन सुबह पौ फटते ही दोनों खेत में जाएंगे और दोनों खेत के अलग-अलग हिस्सों से गुड़ाई करते हुए आयेंगे। कलेऊ खेत में बीच में रख दिया जायेगा और हम दोनों में जो पहले गुड़ाई समाप्त करके वहां पहुंचेगा वही इस कलेऊ को खायेगा। सास-बहू में यह बात पक्की हो गयी।

अभी गाँव के लोग उठे भी नहीं थे, सास और बहु कुदाल (धान गुड़ाई करने वाला यन्त्र) और कलेऊ लेकर खेत में पहुँच गए। बीच में मिट्टी का चबूतरा बनाकर कर कलेऊ की डलिया उस पर रख दी गयी और दोनों उस खेत के अलग-अलग छोरों से गुड़ाई करने लगे।

दोपहर की तेज धूप भूख प्यास से बहु का चेहरा उतर गया। धीरे-धीरे बहु थकने लगी और खेत के बीच में रखे कलेऊ की डलिया देखकर और भी भूख तेज लगने लगी। वह भूख से व्याकुल हो उठी और सास से कहने लगी, कलेऊ खा लेते हैं पर सास, ब्वारी (बहु) की भूख प्यास की परवाह किये बिना कहने लगी। ठहर जा!

ब्वारी (बहु) फिर लाचार होकर काम करने लगी। कुछ समय बाद फिर ब्वारी (बहु) प्रार्थना करने लगी पर सास ने फिर रुकने को कहा ।

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सांझ की बेला नजदीक थी, खेत की गुड़ाई भी समाप्ति की ओर थी। गुड़ाई करते-करते सास और  बहु डलिया के पास पहुँचने लगे। डलिया में रखे कलेऊ और पानी की ललक में दोनों के हाथ पाँव थरथराने लगे। पहुँच से थोड़ी सी दूरी पर रखी हुई वह डलिया उन दोनों के थके हारे मन में जीवन का संचार करने लगी। कार्य समाप्त की भावना ने थके हारे तन- मन में एक आशा का दीप जला दिया था परन्तु यह क्या.......? 

"डलिया पर हाथ पहुँचते ही उन दोनों के जीवन का दीप सदा के लिए बुझ गया"  यानि सासु और ब्वारी (बहु) की वहीं पर मृत्यु हो गई। उन्होंने अपनी जीवन लीला काम करते-करते समाप्त कर दी। 

आज भी पहाड़ों में खेतों में महिलायें काम अलग-अलग दिशाओं से प्रारम्भ नहीं करती हैं। साथ में काम करने वाली महिलायें एक समूह में कतारबद्ध गुड़ाई-निराई का कार्य संपन्न करते हैं।     

यह लोक कथा पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में प्रचलित है। बागेश्वर में आज भी यह खेत मौजूद है और खेत के बीच में वह टीला भी है जिसमें सास और बहू ने कलेऊ की डलिया रखी हुई थी। लोक मान्यताओं एवं  लोक गाथाओं के अनुसार लोग सास बहू की कलेऊ की डलिया कहते हैं। यह स्थान आज भी 'सास-बहू का खेत' यानि कुमाऊंनी में  'सास-ब्वारी गढ़' कहलाता है।