देवी के डोले : आण-बाण के साथ एजेंडी देवता - 1940 के दशक का एक वृत्तांत।
कुमाऊं के तत्कालीन अल्मोड़ा जिले का एक गांव जहां एक गरीब ब्राह्मण परिवार रहता है। परिवार में घर का मुखिया, उसकी पत्नी एवं 6-7 बच्चे (जिनकी उम्र 2 साल से 16 वर्ष) घर के मुखिया की आय का मुख्य साधन बिरति(वृति*) है। परिवार के पास खेत खलिहान एवं मवेशियों के स्थिति अच्छी है, जिस वजह से अनाज एवं धिनाली* की कोई कमी नहीं है। आषाढ़ का महीना है और गायों को खुरपाक* रोग लगा हुआ है जिससे उन्हें रात को गोठ* में ना बांधकर, बाहर ही खुले में बांध रहे है। आज परिवार के मुखिया को कहीं दूर एक गांव में श्राद्ध करने के लिए जाना है तो वो अपनी पत्नी को बोल रहा है कि गायों को बाहर ही बाँधना, चारा डालकर तुम लोग भी जल्दी खा पीकर जल्दी सो जाना। मैं अब कल शाम को ही वापस लौटूंगा।
बच्चों ने आज माँ से जिद की है कि वो आज पूरी रात बाहर ही रहेंगे और गायों की रखवाली (जंगली जानवरों से) करेंगे। माँ भी उनकी जिद के आगे झुक गयी है और वह भी जल्दी जल्दी काम खत्म करके बच्चों के साथ बाहर रुकने का मन बना चुकी है। बच्चे आज बड़े खुश है। जुन्यालि* रात में आषाढ़ की रात गुजारने का एक अलग ही रोमांच है जो उनकी ख़ुशी को दोगुना कर रहा है। जहां गायें बंधी है उसी के पास दो बड़े पत्थरों के ऊपर एक दरी डालकर एक छप्पर-नुमा आकृति बना ली है और आज रात इसी जगह पर गुजारने का विचार है। पत्थरों के पार एक रास्ता जाता है, जिसका ऊपरी छोर घने जंगल की तरफ जाता है और दूसरा छोर कोटगाड़ी गांव को जाता है।
माँ रोटी-साग पका कर बाहर बच्चों के पास ले जा रही है कि तभी रास्ते के ऊपरी छोर से कुछ गाने-बजाने की आवाज आ रही है। डर के मारे जल्दी से माँ भी बच्चों के साथ छप्पर-नुमा आकृति में बैठ जाती है। वो देखते है कि रास्ते से एक समूह बारात जैसी अवस्था में नाच-गा रही है। अँधेरी रात में ऐसा दृश्य देखकर माँ एवं बच्चों के मुंह से कोई शब्द नही निकल रहा है और वो बैठ कर पत्थर की ओट से ही जड़-अवस्था में इस समूह को देखते है। बारात में किस्म किस्म प्रकार के लोग है और ये सामान्य मनुष्य से भिन्न दिखतें है। किसी की आँखें नहीं है, किसी के हाथ नहीं है और किसी के पैर नहीं है। कोई 10 फ़ीट लंबा है तो कोई जमीन से दो फ़ीट ऊपर नाच रहा है। किसी ने लाल कपडे पहने है, किसी ने काले, किसी ने पीले और कोई रंग बिरंगे कपड़ों में है। इक्का-दुक्का लोग सामान्य मनुष्य से भी नजर आ रहे है। समूह के आखिरी में एक लंबा वृद्ध पुरुष नजर आ रहा है जिसने पुरे सफ़ेद वस्त्र पहन एवम् सफ़ेद पगड़ी भी पहन रखी है और उसके हाथ में उससे लंबी लाठी है।
अब इस समूह के आगे के लोगों को बच्चों का आभास हो गया है और एकाएक संगीत बंद हो चुका है। यह समूह अब अब बच्चों की तरफ बढ़ता है कि तभी पीछे से सफ़ेद कपड़ो में वृद्ध पुरुष की आवाज आती है, "खबरदार बाटा बाट हिटो, बाट छाड़ि राखो" (खबरदार रास्ते रास्ते चलों, तुम्हारे रास्ता खाली है)। ऐसा सुनकर समूह का मुख दोबारा रास्ते की ओर मुड़ गया है और आगे बढ़ने लगा है। अजब-गजब ये समूह आगे बढ़ता जाता है और बच्चों एवं उनकी माँ की आँखें तब तक उन पर से नहीं हटती जब तक समूह आँखों से ओझल नही हो जाता। फिर उसके बाद वही खाना छोड़, सबके सबके जल्दी से भाग कर घर के अंदर घुस जाते है और दरवाजा बंद कर, मुंह ढक कर सो जाते हैं।
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यह एक सच्ची घटना है और उन्हीं बच्चों में से लेखक मेरे बड़बाज्यु (दादा जी ) भी थे, जो उस समय 8-9 वर्ष के रहे होंगे।
यह घटना हम बड़बाज्यु से बचपन से सुनते आ रहे हैं और बड़बाज्यु आज भी कहते हैं कि वो बारात का दृश्य और उसका डर उन्हें अब भी ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो।
पहाड़ों में इस तरह की अलौकिक - पारलौकिक शक्तियों का वास सदा से रहा है। इन शक्तियों को मानना या ना-मानना अलग विषय है पर इनको नकारा नहीं जा सकता। साधारणतः इनकी मनुष्यों से भेंट नहीं होती है पर कभी-कभार रात के समय में किसी किसी व्यक्ति का इनसे सामना होता था/है।
बहुत से मित्र, इस घटना के विषय में आगे जानना चाहते हैं, तो मैं आगे लिखता हूँ।
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उस रात तो डर के मारे सभी अपने बिस्तर के अंदर दुबके रहें और किसी की कुछ आवाज नहीं निकली। नींद तो भला किसी को क्या ही आती पर सुबह होने का इंतजार सभी कर रहे होंगे। अगली सुबह जब माँ ने गांव वालों को इस विषय में बताया तो बड़े-बुजुर्गों ने बताया कि यह देवी के डोले हैं जो किसी त्यार-ब्यार (त्यौहार) के दिन चलते हैं और देवी के मंदिर में जाते हैं। कोटगाड़ी मंदिर मेरे गांव के नीचे है तो संभवतः वह बारात वहीं जा रही होगी।
जो उस बारात में उपस्थित थे, उन्हें आण-बाण या गण कहते हैं और जो सबसे पीछे उनका मुखिया सफेद कपड़ों में चल रहा था, वो बताते है कि "एजेंडी"(क्षेत्रीय) देवता थे।
शब्दार्थ : वृति: पुरोहित | धिनाली: दुधारू मवेशियों के रूप में गणित पशुधन | खुरपाक: खुरपका रोग | गोठ: गौशाला | जुन्यालि: चन्द्रमा की तेज रोशनी .
साभार : श्री रिस्की पाठक