जसुली देवी शौक्याणी कैसी बनी इतनी दौलतमंद ? पढ़िए यह रोचक लेख-

jasuli shaukyani
Jasuli Devi 

उत्तराखंड के सबसे दानवीर महिलाओं में जसुली देवी शौक्याणी (Jasuli Devi) का नाम आज भी सर्वोपरि है, जिन्होंने लोगों की सेवा के लिए कुमाऊँ और गढ़वाल के विभिन्न मार्गों में निश्चित दूरी पर धर्मशालाओं के निर्माण करवाये। इसके अलावा पड़ोसी देश नेपाल में भी इन धर्मशालाओं का निर्माण हुआ। वहीं तिब्बत में भी 'जसुली शौक्याणी' के एक धर्मशाला का जिक्र मिलता है। पहाड़ों में इन धर्मशालाओं को स्थानीय भाषा में 'मन्या' कहा जाता है। साठ-सत्तर के दशक तक जब यहाँ यातायात के साधन नहीं थे आम लोगों द्वारा ठहरने के लिए इन मन्याओं का उपयोग खूब किया जाता था। 

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की दारमा घाटी की रहने वाली शौका वंश की धनाढ्य महिला जसुली शौक्याणी के विषय में जानने से पहिले यह जानना जरूरी है कि ये इतनी दौलतमंद कैसे बनीं ?  जसुली लला यानि जसुली देवी के बारे में सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी श्री उदय टम्टा ने अपने पोस्ट के माध्यम से रोचक जानकारी साझा की है, जो इस प्रकार है - 

भारत और तिब्बत (वर्तमान में चीन अधिकृत) के बीच व्यापार हजारों साल से होता रहा है, जो सन 1962 के भारत पर हुये चीनी आक्रमण के बाद अंततः समाप्त हो ही गया।  तब तक उत्तराखंड में व्यापार पूर्ण रूप से तिब्बती हुणियों और भारतीय शौका व्यापारियों के हाथ में ही था। कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र के मूल निवासी तो सिर्फ उपभोक्ता ही थे। हां, व्यापार मुख्यतः वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter system) पर ही आधारित था। शौका व्यापारी भेड़ों की पीठ पर करपचों में लादकर ऊन, तिब्बती नमक, डोलू, अबरख, शिलाजीत, धूंगार, गंतरैणी इत्यादि लाते थे, और बदले में गुड़, चावल इत्यादि ले जाते थे। इनके अलावा जिस महत्वपूर्ण वस्तु पर शौकों का एकाधिकार था, वह था तिब्बत का शुद्ध पीला सोना। शौकों के नाम से ही 'शौकार' शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसका अर्थ है, सेठ या साहूकार। 

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जसुली देवी के पति ने इसी व्यापार से अथाह संपत्ति अर्जित की। परंतु दुर्भाग्य से उनके पति और एकमात्र पुत्र की अचानक मृत्यु हो गई। अकेली जसुली देवी के लिए इस अपार धन की कोई महत्ता ही नहीं रह गई थी। एक बार वह इस धन को भेड़ों पर लाद कर धौलीगंगा में बहाने के लिए निकल पड़ी। इसी बीच तब के कुमाऊं कमिश्नर रैमजे का हिमालय क्षेत्र का दौरा चल रहा था। उन्हें जसुली देवी की यह सूचना प्राप्त हुई और वह उनसे मिलने चले गए। उन्होंने जसुली देवी को सलाह दी कि इस धन से वह धर्मशालाओं का निर्माण करवायें। जसुली देवी ने कमिश्नर की बात मान ली और अपनी असीम सम्पति घोड़ों और भेड़-बकरियों में लाद कर अल्मोड़ा पहुंचा दिया। इसी क्रम में जसुली देवी के इस धन से कमिश्नर रैमजे ने उनके नाम से कुमाऊं और गढ़वाल में लगभग 300 धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। 'जसुली देवी' ने अपनी सम्पति धर्मार्थ समर्पित कर दी। उनके द्वारा शैलकुमारी पर्वत में बनवाये गये धर्मशाला के अवशेष स्वयं लेखक ने भी देखे हैं।  

अठारहवीं सदी या उससे पहले जब पहाड़ों में यातायात के संसाधन नहीं थे, तब व्यापारिक, धार्मिक, विवाह आदि यात्राएं पैदल ही की जाती थीं। ऐसे समय में पैदल मार्ग वाले निर्जन और धार्मिक महत्त्व के स्थानों में रात्रि विश्रामालयों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाना पुण्यदायी कार्य माना जाता था। 

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लेकिन पहाड़ों में धीरे-धीरे सड़कें पहुँचने लगी तो इन मन्याओं (धर्मशालाओं) का उपयोग लोग कम करने लगे। समय बीतते इनका उपयोग पूर्णतः बंद हो गया। रख-रखाव के अभाव में ये ऐतिहासिक धरोहर खंडहर बन चुके हैं। कुछ स्थानों पर सरकार द्वारा इन मन्याओं (धर्मशालाओं) का जीर्णोद्धार कर संरक्षित करने का प्रयास किया गया है। 

यह थी उत्तराखंड की महान दानवीर महिला / दानवीरांगना 'दारमा की लला' जसुली दताल 'शौक्याणी' की कहानी, जिन्होंने अपने अपार धन-दौलत को जन कल्याणार्थ सब दान में दे दिया। जिसका लाभ जनता को दशकों तक प्राप्त हुआ। भले ही आज हमें इन धर्मशालाओं का लाभ न प्राप्त हो लेकिन ये हमारी अमूल्य धरोहर हैं, जिनका संरक्षण आवश्यक है।