उत्तराखंड की पैंछ परम्परा | Painchh - Tradition of Uttarakhand

Tradition of Uttarakhand

Tradition of Uttarakhand-भारत के खूबसूरत और देवभूमि के नाम से विख्यात पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड अपनी संस्कृति और परम्पराओं से भी धनी है। यहाँ के विभिन्न प्रकार के त्यौहार, रीति-रिवाज यहाँ की समृद्ध विरासत के प्रतीक हैं। यहाँ अनेक ऐसी परम्पराएं हैं जो पहाड़ी लोगों के रहन-सहन, मेल-मिलाप और भाईचारे की मिशाल पेश करते हैं। गाँव के किसी एक परिवार के शादी-व्याह, मुंडन और अन्य छोटे से बड़े कार्यों में यहाँ आज भी पूरे गांव के लोग सामूहिक रूप से काम करने आते हैं।  वहीं कृषि कार्यों में भी एक दूसरे के यहाँ कार्य कर आपसी तालमेल और प्रेम भावना का अहसास आज भी पहाड़ों में होता है। कृषि कार्यों को सुगम बनाने के लिए आज यहाँ पल्ट जैसी परम्पराएं जीवित हैं। इसी प्रेम भावना, मेल-मिलाप और भाईचारे को बल देती यहाँ की एक बहुत ही ख़ास परम्परा है, जो 'पैंछ' के नाम से जानी जाती है। यह परम्परा कुमाऊँ के पहाड़ी जिलों में आज भी जीवित है।  


उत्तराखंड की पैंछ परम्परा 

वैसे तो 'पैंछ' शब्द अपने आप में बहुत छोटा है लेकिन पहाड़ों की जीवन शैली में इसका बड़ा महत्व है। यहाँ जो चीज हमारे पास वर्तमान में पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, यदि किसी पड़ोसी या गांव वाले के पास यह चीज नहीं है और उसे इस चीज की जरुरत है तो हम उस चीज को उस व्यक्ति को बेचने के बजाय निःशुल्क में दे देते हैं और वह व्यक्ति इसी चीज को एक सप्ताह, महीने से एक साल के भीतर ली गई सामग्री को उसी मात्रा में सम्बंधित व्यक्ति या परिवार को लौटा देता है। आदान-प्रदान की इसी प्रणाली को हम कुमाऊँ में ' पैंछ ' कहते हैं। 

पैंछ परम्परा में खाद्य सामग्रियों को ही देने की परम्परा रही है। पहाड़ों में अधिकतर घी को ही पैंछ के रूप में दिया और लिया जाता रहा है। कुछ दशक पूर्व तक लोग गेहूं, चावल, दाल, नमक आदि को पैंछ लेकर अपने दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।        

एक समय था जब पहाड़ों में लोगों के पास दर्जनों के हिसाब से गाय, भैंस आदि मवेशी होते थे। यही मवेशी पहाड़ वासियों की पूंजी थी। गाय, भैंस से लोगों के पास पर्याप्त मात्रा में दूध, दही, घी प्राप्त हो जाता था। इसी को बेचकर वे अपने सामान्य खर्चों की पूर्ति करते थे। लेकिन यहाँ गांव और पड़ोस के परिवार वालों से बेचने की परम्परा कम ही होती थी। उन्हें यह चीजें आवश्यकतानुसार दे दी जाती हैं और जब पड़ोसियों के पास ये चीजें उपलब्ध हो जाती हैं तो वे सम्बंधित परिवार से लिया लिया पैंछ वापस कर देते हैं। 

पहाड़ों में यह परम्परा आपसी मेल-मिलाप और सौहार्द का प्रतीक है। भले ही आज लोग साधन संपन्न हो गए हों, बाजार अब गांवों तक पहुँच गया हो, लेकिन 'पैंछ' की यह परम्परा आज भी जीवित है। आज गांवों में इस परम्परा का बदलता स्वरुप नजर आता है, लोग पड़ोसी से लेने के बजाय देते हैं। वे हर छोटी बड़ी चीज को मिल बाँट खाते हैं। जिससे परिवारों में प्रेम भाव बना रहता है। 

पुरुखों द्वारा प्रदत्त पैंछ, पल्ट जैसी परम्पराओं को भविष्य में भी जीवित रखने की आवश्यकता है, ताकि गांव-पड़ोस के लोगों से हमारा मेल-मिलाप और आपसी सद्भाव व समन्वय बना रहे। हम एक दूसरों के सुख-दुःख के भागी बने रहें।        


लेख : नीमा कनवाल एवं विनोद सिंह गढ़िया।