हिलजात्रा-उत्तराखंड का सुप्रसिद्ध लोकनाट्य उत्सव।

hilljatra pithoragarh
Hill Jatra Uttarakhand


उत्तराखंड अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के साथ-साथ अपनी संस्कृति, लोक त्यौहारों और विभिन्न उत्सवों के कारण जग विख्यात है। ऐसा ही एक उत्सव है ' हिलजात्रा ', प्रदेश के पिथौरागढ़ जिले में बड़े हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। लोकपर्व सातों-आठों पर्व  के आठ दिन बाद मनाया जाने वाला यह उत्सव कुमाऊँ में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। इसका सम्बन्ध नाट्य नाटिका कला से है। यह पर्व कृषि से जुड़ा हुआ उत्सव माना जाता है। 

हिलजात्रा दो शब्दों के संयोजन से बना है। पहला है 'हिल' और दूसरा 'जात्रा ',  हिल का शाब्दिक अर्थ है दलदल यानि पानी से भरी दलदली भूमि और जात्रा का अर्थ  है यात्रा, तमाशा या खेल। अर्थात जिसका सीधा तात्पर्य पानी वाले दलदली भूमि में की जाने वाली खेती और खेल का मंचन है। (HillJatra-Pithoragarh)


सिर्फ पिथौरागढ़ जनपद में मनाया जाता है हिलजात्रा 

हिलजात्रा ऐसा त्यौहार है, जो सिर्फ पिथौरागढ़ में ही मनाया जाता है। यह शिव जी की बारात का एक रुप माना जा सकता है। इसमें लोग बैलों का मुखौटा लगाकर नृत्य करते हैं और यह लोग जोडि़यों में होते हैं और इनको हांकने के लिये एक हलिया भी होता है। कई जोडि़यां बनाई जाती हैं और सब मैदान में घूम-घूम कर नृत्य करते हैं। कुछ बैल अकेले भी होते हैं, मुख्य रुप से दो बैल अकेले होते हैं एक मरकव्वा बल्द, जो सबको मारता फिरता है और सबसे तेज दौड़ता है, दूसरा होता है गाल्या बल्द, जो कि कामचोर होता है और बार-बार सो जाता है और उसका हलिया परेशान होता है। यह दोनों बल्द संस्कृति का प्रदर्शन करते हुये ग्रामीण हास्य को भी परिलक्षित करते हैं।

हिलजात्रा के मुख्य आकर्षण 

हिल जात्रा में मुख्य आकर्षण होता है हिरन और लखिया भूत तथा महाकाली। हिरन के लिये एक आदमी को हिरन का मुखौटा पहना दिया जाता है और उसके पीछे तीन लोगों को बैठी मुद्रा में ढंक दिया जाता है, दूर से देखने में लगता है जैसे कोई हिरन चर रहा है। अंत मे हिरन के आंग देवता भी आता है और यह कथानक समाप्त होता है। इसे पहाड़ी ड्रेगन भी कहा जा सकता है, जिस तरह से चीन में मुखौटों के द्वारा ड्रेगन प्रदर्शित किया जाता है, उसी प्रकार से हमारे उत्तराखण्ड में हिरन को दिखाया जाता है।

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आस्था विश्वास, इतिहास, संस्कृति और कला का समन्वय 

हिलजात्रा के समय आस्था और विश्वास के साथ-साथ अभिनय भी देखने को मिलता है। यही एक ऐसा उत्सव है जिसमें इतिहास, संस्कृति और कला का अद्भुत समन्वय मिलता है। इसमें एक ओर महाहिमालयी क्षेत्र के मुखौटा नृत्य का प्रदर्शन होता है तो दूसरी ओर इसमें देश के अन्य हिस्सों में प्रचलित जात्रा परंपरा का भी समावेश है। यह कृषि से जुड़ा उत्सव है। पहले जब लोगों के पास मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे, तब ऐसे लोकोत्सवों में जन भागीदारी बहुत ज्यादा होती थी।

हिलजात्रा की मान्यतायें 

लखियाभूत को भगवान शिव के 12 वें गण रूप में माना जाता है। कहा जाता है कि हिलजात्रा के दौरान लखियाभूत जितना आक्रामक होता है, प्रसन्न होने पर उतना ही फलदायी भी होता है। हजारों की तादात में मौजूद महिलाएं और पुरुष लखिया के क्रोध को शांत करने के लिए फूल, अक्षत से अर्चना कर उन्हें मनाते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। 

लोक मान्यता है कि इस तरह की उपासना एवं आयोजन से लखियाभूत खुश हो जाते हैं। इससे गांव एवं इलाके में किसी प्रकार की विपदा नहीं आती। फसल बेहतर होती है। सूखा और ओलों का प्रकोप नहीं होता है।

संदर्भ : स्वर्गीय श्री पंकज सिंह महर