बग्वाल मेला देवीधुरा - जहाँ लोकहित के लिए होता है पत्थरों से युद्ध।
उत्तराखंड की संस्कृति यहां के लोक पर्व और मेलों में स्पंदित होती है। यूं तो राज्य में जगह-जगह साल भर मेलों का आयोजन चलता रहता है, लेकिन कुछ मेले ऐसे हैं जो अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। कुमांऊ के चम्पावत जनपद स्थित देवीधुरा नामक स्थान पर लगने वाला 'बग्वाल मेला' इन्हीं में एक है, जो हर साल रक्षाबंधन के दिन मनाया जाता है। इस अनूठे मेले की खास विशेषता ये है कि इसमें पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग जुटते हैं। (Bagwal Mela Devidhura)
देवीधुरा देवी मंदिर और बग्वाल
चंपावत जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा-लोहाघाट मार्ग पर बसा देवीधुरा समुद्रतल से करीब 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहीं पर विशाल शिलाखंडों के मध्य प्राकृतिक रूप से बनी गुफा में मां बाराही देवी का मंदिर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए संकरी गुफा है। मंदिर के पास ही खोलीखांड दुबाचौड़ का लंबा-चौड़ा मैदान है। यहां पर रक्षाबंधन के दिन बग्वाल यानी पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है। यह खेल लमगडिया, चम्याल, गहड़वाल और वालिक खामों के बीच खेला जाता है। इन चारों खामों से जुड़े आसपास के गांव के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं।
बग्वाल की लोकमान्यताएं
उत्तराखंड के चम्पावत स्थित देवीधुरा माँ बाराही मंदिर प्रांगण में पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल के पीछे कई लोकमान्यताएं जुड़ी हैं। इन्हीं के अनुसार प्राचीन काल में माँ बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए यहां नरबलि देने की प्रथा थी। कहा जाता है कि हर साल इन चारों खामों के परिवारों में से किसी एक सदस्य की बलि दी जाती थी। एक बार एक खाम की बूढ़ी महिला के पोते की बारी आई लेकिन महिला ने अपने पोते की बलि देने से इंकार कर दिया। कहीं देवी कुपित न हो जाए, यह सोचकर गांव वालों ने निर्णय लिया कि बग्वाल खेलकर यानी पत्थरों का रोमांचकारी खेल खेलकर एक मनुष्य शरीर के बराबर रक्त बहाया जाए। तभी से नरबलि के प्रतीकात्मक विरोध स्वरूप इस परंपरा को जीवित रखते हुए हर साल रक्षाबंधन के दिन चारों खामों के लोग यहां ढोल नगाड़ों के साथ पहुंचते हैं और पत्थरों के रोमांचकारी खेल को खेलते हैं।
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चार खामों के बीच खेला जाता है बग्वाल
देवीधुरा का बग्वाल लमगडिया, चम्याल, गहड़वाल और वालिक चार खामों के बीच खेला जाता है। चारों खामों के लड़ाके युद्ध के मैदान खोलीखांड और दुबाचौड़ के मैदान में परंपरागत युद्ध पोशाक और छतोलियों को हाथ में लिए ढोल नगाड़ों के साथ मां बाराही के मंदिर में पहुंचते हैं। सबसे पहले इन चारों खापों के योद्धाओं द्वारा मंदिर की परिक्रमा और पूजा-अर्चना की जाती है और फिर मंदिर के लंबे-चौड़े प्रांगण में युद्ध के लिए मोर्च पर डट जाते हैं। लमगडि़या और बालिग खाप के योद्धा दक्षिण दिशा में होते हैं और गहरवाल और चम्याल खाप के लड़ाके उत्तर दिशा में होते हैं। पुजारी के शंखनाद के साथ ही बग्वाल शुरू हो जाती है और फिर शुरू होता है पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध जिसमें लोगों की सांसें थम जाती हैं। युद्ध के दौरान घायल लड़ाके पत्थरों की चोट को माता का प्रसाद मानते हैं। युद्ध के दौरान मैदान का दृश्य देखने लायक होता है। बांस की बनी छतोलियों से लड़ाके अपना बचाव करते हैं। इस चोट पर किसी तरह की मरहम पट्टी नहीं की जाती।
कुछ ही मिनटों में अचानक रोक दी जाती बग्वाल
जिस समय ये रोमांचकारी युद्ध होता रहता है, पुजारी मंदिर में बैठकर मां बाराही की पूजा अर्चना करते रहते हैं। पुजारी को जब आभास होता है कि एक मानव के बराबर रक्त बह गया है। अचानक वे भाववश तांबे के छत्र और चंवर के साथ मैदान में पहुंच शंखनाद करते हैं और पुजारी के शंखनाद के साथ ही पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को रोक दिया जाता है। इसके बाद चारों खामों के योद्धा आपस में गले मिलते हैं।
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इससे पहले सुबह मंदिर में मां बाराही की प्रतिमा को चारों खाप के लोग नंदगृह ले जाते हैं, जहां पर मूर्तियों को दूध से नहलाया जाता है और नए परिधानों से सुसज्जित किया जाता है।