हरेला त्यौहार और हमारी परम्परायें।

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उत्तराखंड का पारम्परिक हरेला त्यौहार 


उत्तराखंड सिर्फ अपनी खूबसूरती से ही नहीं अपितु अपने लोकपर्वों के कारण भी पूरे देश और विदेश में प्रसिद्ध है। यहाँ के विभिन्न लोकपर्व ऋतु चक्र, व्यावहारिक और विज्ञान से भरपूर लोक कल्याणकारी उत्सव हैं जिसका एक उदाहरण 'हरेला त्यौहार' है। जो हर व्यक्ति को नदी, पहाड़, पत्थर, मिट्टी और पर्यावरण को सहेजने का सन्देश देता है। 

हरेला त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में बड़े हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। इस पर्व की महत्ता को समझते हुए उत्तराखंड सरकार भी इस दिन को बड़े धूमधाम के साथ मनाने लगी है। सरकार पूरे पखवाड़े को हरेला के रूप में मनाकर विभिन्न स्थानों में वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित करती है।

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हरेला क्या है ?

'हरेला' का शाब्दिक अर्थ 'हरियाली' है, यानि हरेला हरियाली, सुख -शांति और समृद्धि का प्रतीक पर्व है। जिसके मनाने के बाद पूरे क्षेत्र में हरियाली छाने लगती है। यह पर्व ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु के आगमन पर स्वागत पर्व है। इस पर्व के मनाने से नौ दिन पूर्व उत्तराखंड में लोग पूरे रीति-रिवाजों के साथ सात प्रकार के अनाज अपने घर में एक छोटी सी टोकरी में बोते हैं। 10 वें दिन इस टोकरी से बीज अंकुरित होकर हरे-पीले रंग के पौधे हो जाते हैं इसी को स्थानीय लोग 'हरेला ' कहते हैं।    

हिंदी माह श्रावण के प्रथम दिन यानि 1 गत्ते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाने वाला हरेला कुमाऊं के महत्वपूर्ण और लोकप्रिय त्यौहार है। यह पर्व हमें नई ऋतु के शुरू होने की सूचना देता है। इसी दिन से वर्षा ऋतु की शुरुवात हो जाती है। इस त्यौहार को उत्तराखंड की बेटी नंदा यानि माता पार्वती और भगवान शिव की पूजा के माह के रूप में भी मनाया जाता है। इसी दिन से सावन माह का शुभारम्भ भी माना जाता है। इसी दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है। 


हरेला बुवाई की प्रक्रिया: 

हरेला त्यौहार मनाने की तैयारी 9 दिन पूर्व हरेला बोने के साथ ही शुरू हो जाती है। जिसमें 7 प्रकार के अनाज गेहूं, जौ, मक्का, चना, उड़द, गहत और सरसों को रिंगाल की टोकरियों में प्रचलित विधि-विधान के साथ बोया जाता है। घर के अंदर बने मंदिर में ही इस टोकरी का स्थान होता है। सुबह-शाम प्राकृतिक धारे या नदी के जल से इन्हें सींचा जाता है। 9वें दिन हरेले ही गुड़ाई की जाती है और इसमें जुड़वा फल रखकर इसे सजाया जाता है। 10वें यानि हरेला त्यौहार के दिन इस हरेले की काटा जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहते हैं। 

हरेला के आशीर्वचन:

हरेला को पतीसकर सर्वप्रथम अपने कुल देवों को अर्पित किया जाता है।  तद्पश्चात घर की सयानी महिला द्वारा सभी को हरेला पूजते हुए शुभाशीष दिया जाता है। कुमाऊंनी बोली में आशीर्वचन इस प्रकार दिए जाते हैं - 

जी रये जागि रये, 
स्याव जस बुद्धि है जौ, 
सूर्ज जस तराण ऐ जौ, 
आकाश बराबर उच्च है जैए, 
धरती बराबर चकाव, 
दूब जस फलिये, 
हिमाल में ह्यूं छन तक, 
गंग ज्यू में पानी छन तक, 
सिल पिसि भात खाये 
जांठि टेकि झाड़ जाये,
जी रये जागि रये. .

अर्थात् - तुम जीते-जागते रहना, स्यार (लोमड़ी) की तरह चतुर और सूर्य के समान ओजस्वी, आसमान के बराबर ऊँचा और धरती के बराबर चौड़ा हो जाना, तुम्हारी जमीन पर दूब (घास) के समान मजबूत पकड़ हो, हिमालय में जब तक बर्फ है और गंगा जी में जब तक जल है तब तक तुम जीवित रहना।  तुम बुढ़ापे में सिलबट्टे में पिसा हुआ भात (चावल) खाने तक जीवित रहना। तुम जीते-जागते रहना। 

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Harela Wishes
Harela Wishes - Happy Harela

वैज्ञानिक तथ्य:

एक-दो दशक पहले तक हरेला त्यौहार उत्तराखंड में कृषि -किसानी करने वाले लोगों के लिए मिट्टी जांचने का एक पारम्परिक वैज्ञानिक तरीका भी था। हरेला की बुवाई के लिए लोग अपने खेतों की मिट्टी का प्रयोग करते थे। वे इस मिट्टी में सात प्रकार के अनाजों की बुवाई थे। सभी बीजों के अंकुरण के बाद लोग पता लगाते थे कि उनके खेत की मिट्टी की उर्वरा शक्ति कैसी है। हरेला जितना बड़ा और परिपक्व हो, इसी से लोगों को अंदाजा हो जाता था कि उनके खेत उर्वरा शक्ति कितनी है या इस वर्ष उनकी पैदावार कैसी होगी। 

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वृक्षारोपण की परम्परा: 

उत्तराखंड का हरेला पूरे देश -प्रदेश में इकलौता ऐसा त्यौहार है , जिसके आयोजन पर वृक्षारोपण की परम्परा अनिवार्य है। पहाड़ वासी इस त्यौहार पर अपने आसपास दर्जनों के हिसाब से पेड़ों को लगाते हैं। वृक्षारोपण की यह परम्परा सदियों पूर्व से चली आ रही है। “हरेला” लोक पर्व इस बात का परिचायक है कि हमारे पूर्वज वन संरक्षण और पर्यावरण को अत्यधिक महत्व देते थे।  बरसात के इस मौसम में धरती की नमी नये वृक्षों के उगने के लिये उपयुक्त होती है। मान्यता है किसी पेड़ की शाखा को तोड़कर हरेले के दिन रोपा जाए तो उस शाखा से नये पेड़ का जन्म हो जाता है। होता भी ऐसा ही है। जिस पेड़ की पौध तैयार करना मुश्किल होता है, लोग उस पेड़ की शाखाएं तोड़कर हरेले के दिन गीली मिट्टी या नमी वाले स्थानों में रोप देते हैं। जिनसे नए कोपलें निकल आती हैं। जो बाद में एक वृक्ष का रूप लेता है। 

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आज जिस तरीके से ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या से पूरा विश्व जूझ रहा है। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की समस्याएं बढ़ने लगी हैं। महानगरों में  प्रदूषण की समस्या अब लोगों को जानलेवा बीमारियों से ग्रसित कर रही है। यदि हमने इनका प्रभाव कम करना है तो हमें उत्तराखंड के हरेला पर्व को आत्मसात कर इस दिन कम से कम 10 पेड़ लगाने होंगे। इस हरेला पर्व को सभी प्रदेशों में वृक्षारोपण कार्यक्रम के तौर पर मनाने की आवश्यकता है, ताकि हमारी धरा हरीभरी रहे। हरेला हमारे जीवन में सुख-समृद्धि और खुशहाली लाये।