Uttrayani Fair Bageshwar | बागेश्वर का उत्तरायणी मेला क्यों है ख़ास ?
बागनाथ मंदिर से सरयू तट और बागेश्वर का विहंगम दृश्य। |
भारतीय शास्त्रों में माघ महीने को पवित्र महीना माना गया है। इस माह में दर्शन, दानपुण्य, स्नान आदि का विशेष महत्व है। माघ महीने के प्रथम दिन यानि संक्रांति को उत्तर भारत के विभिन्न संगम स्थलों में स्नान के लिए लोगों की भीड़ जुटती हैं और मेलों का आयोजन होता है। इन्हीं में उत्तराखंड के बागेश्वर में सरयू, गोमती और विलुप्त सरयू के त्रिवेणी घाट पर माघ संक्रांति के दिन स्नान का विशेष महत्व है। उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता तीर्थराज के रूप में है। इसीलिए इस दिन बागेश्वर में अपार जन सैलाब उमड़ पड़ता है। प्रसिद्ध उत्तरैणी (उत्तरायणी) मेला भी इसी दिन से प्रारम्भ होता है। जो करीब हफ्ते भर तक चलता है। (Uttrayani Fair Bageshwar )
बागेश्वर का उत्तरायणी मेला -
हर वर्ष माघ माह संक्रांति से बागेश्वर के सरयू बगड़ समेत यहाँ के विभिन्न स्थलों में लोगों का जमावड़ा लगता है। पूरे कुमाऊँ और गढ़वाल समेत देश के विभिन्न प्रदेशों से मेलार्थी यहाँ पहुंचते हैं। मेले की शुरुवात माघ संक्रांति से होती है। लोग इस दिन त्रिवेणी घाट पर स्नान कर भगवान बागनाथ के दर्शन करते हैं। इस पर्व पर लोग यहाँ सरयू तट पर बच्चों के जनेऊ संस्कार संपन्न करवाते हैं।
महीने भर से उत्तरायणी मेले की तैयारियां प्रारम्भ होने लगती हैं। सरयू बगड़, नुमाईशखेत समेत विभिन्न जगहों को सजाया जाता है। बागनाथ मंदिर और सरयू घाट उत्तरायणी के मौके पर देखने लायक रहती हैं। सरयू बगड़ समेत विभिन्न स्थानों में बाहरी व्यापारी अपनी दुकानें सजाते हैं। दिनभर सांस्कृतिक गतिविधियों से बागनाथ नगरी अपने आप में व्यस्त रहती है। यहाँ कंपकंपाती सर्द रातों में अलाव के चारों ओर झोड़े-चाँचरी, भगनौल, छपेली जैसे लोक नृत्य, गीतों की जुगलबंदी दर्शनीय है। (Importance of Uttrayani Fair Bageshwar)
उत्तरैणी मेले का ऐतिहासिक महत्व-
बागेश्वर के उत्तरैणी मेले की शुरुवात चंदवंशीय राजाओं के शासनकाल से गयी थी। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासन काल में ही माघ मेले की नींव पड़ी। तब पूरे बागेश्वर की भूमि पर उन्हीं का स्वामित्व था। भूमि से उत्पन्न उपज का बड़ा हिस्सा बागनाथ मंदिर के रख रखाव में खर्च होता था। उन्हीं के द्वारा नियुक्त पुजारी बागनाथ मंदिर में पूजा संपन्न करवाते थे। कहते हैं तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था।
बागेश्वर की उत्तरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयुक्त होने लगी थी। सरयू बगड़ में राजनैतिक सभाएं होती थी। इन सभाओं से पहाड़ के देशभक्त लोगों में 'स्वराज हुनैर छु' - स्वराज्य होने वाला है की भावना जागृत होने लगी। उत्तरैणी के मौके पर लोग श्याम लाल साह, हरगोविंद पंत, विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे सरीखे-नेताओं को सुनने सरयू बगड़ में एकत्रित होते थे।
उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही अमानुषिक कुप्रथा कुली बेगार से त्रस्त पहाड़ की भोलीभाली जनता अब इस प्रथा के खिलाफ आवाजें उठाने लगी। 14 जनवरी 1921 को उत्तरैणी के दिन सरयू बगड़ में ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू की गई कुप्रथा कुली बेगार के अंत के लिए एक विशाल आंदोलन प्रारम्भ हुआ। इसी दिन प्रसिद्ध स्वतंत्रता आंदोलनकारी श्याम लाल साह, बद्रीदत्त पांडेय, हरगोविंद पंत जैसे आजादी के रणबांकुरों के नेतृत्व में कुली रजिस्टर को शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के साथ फाड़कर सरयू में प्रवाहित कर दिए और आज से कुली उतार, कुली बेगार बरदायिस न देने के कसम खायी। उत्तरैणी का यह दिन इस ऐतिहासिक फैसले का गवाह बन गया। इस दिन पूरे पहाड़ से इस कुप्रथा का सदैव के लिए अंत हो गया। इसीलिए बागेश्वर की उत्तरैणी पहाड़ी लोगों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक बड़े व ऐतिहासिक आन्दोलन के कारण अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक पहचान रखता है। कुली बेगार समाप्त होने के बाद से हर साल उत्तरैणी में सरयू बगड़ में राजनीतिक पंडाल सजते हैं। जहां राजनीतिक दलों के नेता अपने विचार, योजनाएं लोगों तक पहुंचाते हैं।
उत्तरैणी मेले का सांस्कृतिक महत्व-
सांस्कृतिक दृष्टि से बागेश्वर का उत्तरैणी मेला महत्वपूर्ण है। यह मेला कुमाऊँ की अलग-अलग संस्कृतियों के मिलन का प्रमुख केंद्र है। दानपुर, नाकुरी, मिलम-जोहार, काली कुमाऊँ,सोर, गंगोली, खरही, अल्मोड़ा, द्वाराहाट आदि पट्टियों की संस्कृतियों की झलक देखनी हो तो उत्तरैणी से बेहतर एक साथ अन्य किसी भी मेले में देखने को नहीं मिलता।
पहाड़ों की सर्द रातों में भी उत्तरैणी का जोश कभी कम नहीं होता है। रात को अलाव जलाकर झोड़े-चाँचरी, भगनौल, छपेली का गायन इस मेले की रौनक में चार चाँद लगाते हैं। दानपुरी वेशभूषा में पहुँची महिलाएं यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और संवर्धन की ओर सभी ध्यान केन्द्रित करती हैं। नुमाइश मैदान में लोक कलाकारों का जमावड़ा रहता है। लोकरंग से पूरा बागेश्वर शहर रंगा रहता है। इस प्रकार उत्तरैणी मेला लोक संस्कृति के आदान-प्रदान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सदियों से निभा रहा है।
उत्तरैणी मेले का व्यापारिक महत्व-
हफ्तेभर चलने वाले उत्तरायणी मेले में करोड़ों का कारोबार होता है। हिमालयी जड़ी-बूटियों, दानपुर के रिंगाल उत्पाद, भोटिया-जौहारी लोगों के दन, गलीचे, ऊनी कम्बल, पश्मीना, खरही पट्टी के तांबे के उत्पाद, काली कुमाऊँ के भदेले, पहाड़ी संतरे, केले, गन्ने आज भी इस मेले में की शान बढ़ाते हैं। वर्तमान में बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में भोटिया कुत्तों (Bhotia Dogs) की व्यापक खरीददारी होने लगी है। देश के विभिन्न प्रदेशों से लोग उत्तरायणी मेले में इस प्रजाति के कुत्तों के खरीदने के लिए पहुँचते हैं।
पोस्ट साभार - उत्तरायणी मेला बागेश्वर का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक महत्व। - eKumaun.com