लोकसंस्कृति के वैभव को संजोने में जुटी "पिछौड़ी वूमेन"- मंजू टम्टा
पहाड़ वो नहीं है जो सैलानियों के कैमरों में क्लिक होता है। तस्वीरों में दिखाई पड़ने वाले ऊंचे पेड़, फूल, फल, बर्फ, नदियां, झरने, पगडंडियां उसी तरह हैं जैसे चिठ्ठी को ढके हुए रंगीन लिफाफा। उस लिफाफे के भीतर बंद पाती में कितनी तहें हैं और उन तहों में कितने भाव लिपटें हुए हैं, यह समझने के लिए चिठ्ठी की परतों को खोलकर उनमें लिखे शब्दों को छूना जरूरी है हाथों से, आंखों से, हृदय से। पहाड़ जब आइए सैरखोर नहीं बल्कि मायादार बनकर, फिर आप इसके चोटियों, गाड़-गधेरे, विशाल वृक्षों, बांज, बुरांस, काफल, हिंसर, किंग्गोड देखकर "वाऊ" नहीं करेंगे, बल्कि मंत्रमुग्ध होकर उन्हें अपने भीतर झूमता, बहता, खिलखिलाता हुआ पाएंगे और जब लौटेंगे तो सिर्फ लिफाफे नहीं, भावभीनी पातियों की समौंण भी आपके साथ होगी।
पहाड़ की समृद्धि यहां के आभूषणों में, परिधानों में सदियों पुरानी रही है और समय-समय पर इनमें बदलाव भी हुए, क्योंकि कहा जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम और जरूरत आविष्कार की जननी है और भारतीय संस्कृति में यदि हम बात करते है अपनी पहाड़ी रीति-रिवाज और संस्कृति की ये बहुत ही अदभुत और अनूठी परम्परा के ताने -बाने से मिलकर बनी है और उस ताने-बाने को आज भी हम कायम किए हुए हैं, यहां के हर वर्ग, हर जाति की एक ही संस्कृति देखने को मिलती है।
उत्तराखंड का कुमाऊं मंडल धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं की आस्था का केंद्र है। उन परम्पराओं में हम देखते हैं तो पाते हैं कि कुछ परिधान ऐसे हैं जो हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता के द्योतक होते हैं। उनको आम जन-जीवन में कब और कैसे धारण करना है, उनके कुछ कायदे कानून हैं जिन्हें हम सदियों से और आज तक के परिवेश में नियम पूर्वक संजोए हुए हैं। ऐसा ही एक परिधान है रंग्याली पिछोड़ी।
संस्कृति और सभ्यता एक दूसरे के पूरक होते हैं पर आज विडम्बना ये है कि पहाड़ के पहाड़ सूने होते जा रहे हैं और जब यहां की सभ्यता ही नहीं बचेगी तो संस्कृति का क्या? आज हम दौड़भाग वाली जीवन शैली की वजह से महानगरों की तरफ रुख करने को आतुर रहते हैं और वहीं की जीवनशैली में लिप्त होते जा रहे हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो प्रवास में रहकर भी अपनी जड़ों से मजबूती से जकड़े रहे और समय व मौका मिलने पर वापस अपनी मूल जड़ में आने का फैसला लिया, क्योंकि उनका कहना है कि "जड़ें बुलाती हैं।" ऐसी ही एक शख्सियत हैं लोहाघाट पिथौरागढ़ की एक बेटी मंजू टम्टा, जो आज एक ब्रांड बन चुकी हैं। उनका कहना है कि वो दिल्ली जैसे महानगर में पैदा तो हुई पर मां बाप ने पूरी तरह से पहाड़ी परिवेश में उनकी परवरिश की, जिसकी वजह से उन्हें पहाड़ की संस्कृति के बारे में बचपन से ही पता था। वो कहती है कि हर साल गर्मी के मौसम में पड़ने वाली छुट्टियों का उन्हें बेसब्री से इंतजार रहता था। उनको पहाड़ी संस्कृति बचपन से ही लुभाती थी।
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मंजू टम्टा कॉरपोरेट सेक्टर (ताज ग्रुप ऑफ होटल और थापर ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज़) में नौकरी कर चुकी हैं और आज अपनी संस्कृति और परम्पराओं को देश दुनिया तक ऑनलाइन कारोबार के माध्यम से पहुंचा रही हैं।
श्री धनी राम आर्य और सुंदरी देवी की बड़ी बेटी एक दिन उनका नाम रोशन करेंगी, ऐसा उनके माता पिता को पहले से ही आभास था ,क्योंंकि मंजू बचपन से ही प्रतिभा की धनी रही है । देश के जाने माने शिक्षण संस्थान लेडी श्रीराम कॉलेज से उनकी स्नातक तक की शिक्षा हुई है और हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से उन्होंने एम बी ए टूरिज्म से किया हुआ है।
सन् 2002 में मंजू जी की शादी गंगोली हाट के श्री राजेन्द्र टम्टा जी से हुई। उनका परिवार दिल्ली में रहता था और पति का अंबाला में। ससुराल पक्ष पहाड़ी होकर भी पंजाब के कल्चर में रचा-बसा था, ऐसे में शादी में वहीं का कल्चर निभाते हुए उन्हें पंजाबी चुन्नी पहननी पड़ी। कुमाऊं का पारंपरिक पिछौड़ा उन्हें बहुत आकर्षित करता था। अफसोस इस बात का था कि मैं कुमाउंनी होकर भी अपनी शादी में पिछौड़ा नहीं पहन पाई। बस यही एक कसक उनके दिल और दिमाग में घर कर गई वह बतातीं हैं कि पिछौड़ा/पिछौड़ी पहनी हुई महिलाएं बहुत ही खूबसूरत दिखती है.
उत्तराखंड में आए दिन बाहरी राज्यों के रस्मों रिवाजों का प्रचलन देखने को मिलता रहता है लोग शादी में पंजाब का चूड़ा के साथ फुलकारी, राजस्थान की घाघरा चोली और न जाने कहां कहां के परिधान पहने हुए दिखते है जबकि हम खुद एक ऐसे राज्य से ताल्लुक रखते है जिसके परिधानों की सुंदरता और संपन्नता के राज यहां के इतिहास में छुपे हुए है तो क्यों न हम आज अपने परिधानों को एक अलग सी पहचान बनाने की कवायद शुरू कर दें जिससे हमें एक अलग सी पहचान मिल सके।
अब जाकर थोड़े बहुत बदलाव देखने को मिल रहे है मंजू जी जैसे लोग प्रवास से पहाड़ आकर इस तरह के समाजिक और सांस्कृतिक बदलाव करने की लगातार कोशिश करने में लगे है, जिससे संस्कृति और रीति रिवाजों की जड़ें मजबूत हो रही है और बदलाव हो भी रहे है और ये बदलाव आने वाली पीढ़ी के लिए मील का पत्थर साबित होंगे । मैंने खुद देखा कि उत्तराखंड के गहने और परिधान प्रवास में हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे होते है।
अपनी एम बी ए टूरिज्म मैनेजमेंट की डिग्री के दौरान उनके दिमाग में यहां के पर्यटन को लेकर बहुत सारी चीज़ें थी, क्योंकि पयर्टन और संस्कृति इस पर्वतीय राज्य की आत्मा है,जिसमें रोजगार की अपार संभावनाएं छिपी है, पर उनके सृजनात्मक मन को तो बस एक ही चीज आकर्षित करती थी और वो थी कुमाऊं की "रंग्याली पिछोड़ी''।
वर्ष 2015 में जब उनके घर में उनके छोटे भाई की शादी थी और उनके दिमाग में ये था कि अब तो पिछोड़ी काफी ट्रेंडी भी हो गई होगी तो उन्होंने चम्पावत में रहने वाली अपनी मौसी से लेटेस्ट डिजाइन की तीन पिछोड़ी मंगवाई पर जब उनके हाथ में वो पिछोड़ी आई तो मन पशीज कर रह गया और मलाल रह गया कि आज भी उन्हें उनके मन मुताबिक डिजाइन की पिछोड़ी नहीं मिल पा रही है,जैसे कैसे करके रस्म रिवाज निभाए गए और तय कर लिया कि अब समय आ गया है कि अपने हुनर के जादू का इस्तेमाल इस परम्परागत परिधान को नई पहचान दिलाने में किया जाएगा और कहा जाता है कि यदि हम किसी चीज को सिद्धत और मेहनत और लग्न के साथ करना चाहते है तो एक दिन कामयाबी आपके कदम चूमती है ।भले काम करते हुए कई बाधाओं और शंकाओं से आपका सामना होता है पर जब काम करने का जोश और जुनून हो तो निश्चित तौर पर आप एक बदलाव लाने में सफल होते हैं।
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मंजू जी ने अपने सफर के शुरुआती दौर में बहुत मार्केट रिसर्च किए,गहन चिंतन मनन किया और हर एक जगह जाकर पता किया कि इस परिधान की क्या स्थिति है लगभग एक साल तक उनको ये सब करने में लग गए और अंत में दिल्ली और देहरादून के अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर लेटेस्ट डिज़ाइन की मात्र 30 पिछोड़ी का पहला स्टॉक तैयार करवाया, जिसे लोगो ने हाथों हाथ लिया । मंजू जी कहती है कि मेरे पहले ग्राहक मेरे कुछ करीबी रिश्तेदार थे और मित्र ही थे। ये भी सत्य है कि जब हम अपने काम की शुरुआत अपने घर से करते है और उस काम में घर के सदस्यों का सहयोग रहता है तो उससे एक नई स्फूर्ति और ऊर्जा का संचार होता है और काम करने का जोश दुंगुना हो जाता है मंजू जी के साथ भी वही हुआ पहले ग्राहक घर के फिर धीरे धीरे बाहर के लोगों तक उत्पादों को पहुंचाया,और सबसे पहले आपने "पहाड़ी ई कार्ट" नाम से कम्पनी को रजिस्टर्ड करवाया, वर्तमान में जिसकी आप बतौर सीइओ है और फिर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अमेजॉन के माध्यम से आपने अपने उत्पादों को दुनिया जहां के लोगो तक पहुंचाने में अपनी पूरी मेहनत लगा दी ,जिसे लोगो ने खूब सराहा और खरीदा भी और अपने को गौरवांवित महसूस किया कि आज उत्तराखंड का एक पारंपरिक परिधान ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है।
आज आपकी रचनाओं का खूबसूरत संसार है जिसमें आपने अपनी मेहनत से बहुत सारे खूबसूरत रंग भर दिए हैं जिसके मुरीद सिर्फ उत्तराखंड के लोग ही नहीं बल्कि देश के कोनों कोनों के लोग भी है।
विगत वर्ष बेल्जियम के एक प्रेमी युगल ने त्रिजुगीनारायण मंदिर में हिन्दू धर्म के रीति रिवाज के अनुसार विवाह किया जिसमें कि दुल्हन ने मंजू जी द्वारा बनाई पिछोड़ी पहनी जिसकी उन्होंने भूरी भूरी प्रशंसा की।
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आज आप पहाड़ी ई कार्ट के माध्यम से बेहतरीन कार्य कर रही है और आपका डिजाइन किया गया पिछौड़ा पहाड़ी महिलाओं के साथ देश के अन्य जाति-धर्म की महिलाओं को भी खूब भा रहा है। उन्हें कई गैर हिन्दू लड़कियां भी संपर्क करती हैं, और कहती हैं कि उनके लिए भी ये दुपट्टा डिजाइन कर दीजिए, बस धार्मिक चिह्न न हो उसमें।आपने एक खूबसूरत परिधान को हर जाति हर धर्म हर वर्ग के लोगों तक पहुंचाया है और साबित कर दिया कि इस परिधान को पहनने का हक उस हर एक महिला को है जिसे पता है की इसे पहनकर उसकी सुंदरता में चार चांद लग जाते है और वो अपने को गौरवान्वित महसूस करे।
इस काम में आपका स्वयं का इन्वेस्टमेंट है आपको प्रशासन स्तर पर कोई प्रोत्साहन नहीं मिला जबकि संस्कृति के नाम से बड़े बड़े आयोजन होते है पर सच्चे संवाहको तक आज तक प्रशासन स्तर से कोई मदद नहीं पहुंचती
आज मंजू जी संस्कृति संरक्षण और संवर्धन में लगातार नए नए प्रयोग करने में लगी है साथ ही लोगो को स्वरोजगार के जरिए रोजगार तो मुहैया करवा ही रही है। साथ ही वोकल फॉर लोकल की थीम पर सोविनियर टूरिज्म को प्रमोट कर रही हैं जिससे देश विदेशों से जो पर्यटक उत्तराखंड आये वो यहां से अपने साथ कुछ खूबसूरत यादें लोक कला के माध्यम से संजों कर ले जा सकते हैं।
आप घर बैठे अपना ऑर्डर अमेजन या पहाड़ी ई-कार्ट के फेसबुक पेज, इंस्टाग्राम के पेज के माध्यम से कर सकते हैं।
वर्तमान में पहाड़ी ई-कार्ट के उत्पादों की लिस्ट ये है-
- .ब्राइडल डिजाइनर पिछोड़ी
- पिछोड़ी
- रेडी टू वेयर पिछोड़ी
- स्टॉल्स
- स्कार्फ
- विंटर वेलवेट स्टॉल्स
- विंटर वेलवेट स्कार्फ
- ब्राइडल वेलवेट शाल
- पिछोड़ी थालपोश
- देवी आसन
- पोटली बैग्स
- माता की चुन्नी
- पहाड़ी टोपी
- ऐपण स्टॉल
- ऐपण सिल्क दुपट्टे
- पहाड़ी आर्टिफिशियल ज्वैलरी
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मंजू जी आज अपनी मेहनत व लग्न से उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान व गहनों को लोगो तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है "पहाड़ों की रीढ़ महिला" ही होती है पर कहीं न कहीं आज भी संसाधनों पर महिलाओं का अधिकार शून्य के बराबर है वो आत्म निर्भर होकर भी आत्म निर्भर नहीं होती है तो इसी आत्मनिर्भरता की मिशाल को कायम कर दिखाया है पहाड़ की इस बेटी ने जिसके व्यवसाय से आज कई लोगो को रोजगार मिल रहा है और यदि रोजगार मिल रहा है तो पलायन भी रुकेगा तो जो काम आज प्रदेश की सरकारें व पलायन आयोग नहीं कर पा रहे है वो हमारे पहाडों की कुछ महिलाओं के द्वारा संस्कृति बचाने की पहल से संभव हो रहे है।आज की पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने परम्पराओं को जस का तस रखकर और उसमे कुछ नयापन लाकर कुछ उत्पाद बनाएं है जिसे लोग खूब पसंद कर रहे है आज मंजू जी एक ब्रांड बन चुकी है और उन लोगो के लिए सीख बन रही है जो आए दिन कहते रहते है कि पहाड़ों में रोजगार नहीं है एक बार स्वयं का मूल्यांकन करके देखिए ये पहाड़ रोजगार की अपार संभावनाएं लिए खड़ा है जहां आप अपने घर में रहकर भी स्वयं का रोजगार तो कर ही सकते है बल्कि अपने साथ दूसरों को भी रोजगार परक कार्यक्रम से जोड़कर पलायन रोकने में सक्षम हो सकते हैं।