कुली बेगार-भारतवर्ष की रक्तहीन क्रांति और महात्मा गाँधी
उत्तराखंड में सदियों से एक अमानुषिक कुप्रथा चल रही थी, जिसका नाम था- 'कुली- बेगार'। 1815 में यहाँ ईष्ट इंडिया कंपनी और 1858 में ब्रिटिश शासनकाल में यह कुप्रथा उत्तराखंड के भोले-भाले ग्रामीणों के शोषण का औजार बन गई थी। 1863 -73 के दसवें भूमि बंदोबस्त में जे.ओ.बी. बेकट ने बड़ी चालाकी से कुली-बेगार, कुली-उतार और कुली-बर्दायश को भूमि बंदोबस्ती इकरारनामों का हिस्सा बना दिया था। इसके तहत अंग्रेज साहबों के दौरों और सैर-सपाटे के वास्ते पटवारी, कुलियों की मांग और कुली बर्दायश का रुक्का पधानों/थोकदारों को भेजते थे। कुली-बेगार के तहत साहबों के समान ढोने के लिए कुली (ग्रामीण जनता) और कुली बर्दायश के अंतर्गत ग्रामीण जनता से लकड़ी, घास, कोयला, अन्न, सब्जियां, दूध-दही, बर्तन, अंडा-मुर्गी, बकरी, ताजे दूध के लिए दुधारू गाय और कैंप बनाने के लिए आदमी भेजे जाने का आदेश भेजे जाते थे।
अंग्रेज साहबों की सुविधा के लिए बेगारी देना उत्तराखंड के लोगों विशेषकर ग्रामीण काश्तकारों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी था। इस अमानुषिक कुप्रथा से संपूर्ण उत्तराखंड की जनता त्रस्त थी।1920 में भारत के राजनैतिक क्षितिज में महात्मा गाँधी जी का पदार्पण हुआ। भारत की राजनीति में गाँधी युग की शुरुआत हुई। गाँधी जी ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध असहयोग आंदोलन शुरू किया। उत्तराखंड में असहयोग आंदोलन कुली-बेगार आंदोलन के रूप में अभिव्यक्त हुआ। आज से सौ साल पहले 13 जनवरी,1913 को कुमाऊँ केसरी बदरी दत्त पाण्डे जी के नेतृत्व में बागेश्वर में दस हजार लोगों की विशाल सभा हुई। सभा में महात्मा गाँधी जी के जयकारे लगे और उन्हें अवतार बताया गया। सभा में मौजूद सभी लोगों ने मकर संक्रांति के दिन भगवान बागनाथ जी के मंदिर में कुली-बेगार नहीं देने की शपथ ली। सरयू नदी के पवित्र जल को अंजलि में लेकर कुली-बेगार से मुक्ति का संकल्प लिया। सभी पधान और मालगुजारों ने कुली-बेगार के रजिस्टर सरयू के पवित्र जल में प्रवाहित कर दिए। कुली-बेगार आंदोलन सफल हुआ।
महात्मा गाँधी जी के पौत्र एवं साबरमती सत्याग्रहाश्रम के साधक प्रभुदास गाँधी ने कुली-बेगार आंदोलन के बारे में लिखा था :-
"गाँधी जी ने सन 1920 में नागपुर की कांग्रेस में विदेशी सरकार का अन्याय और उत्पीड़न मिटाने के लिए आत्म बल का प्रयोग करने की बात कही थी और शांतिमय असहकार का मंत्र दिया था। किंतु उन्होंने उस समय अपने किसी दूत को अल्मोड़ा भेजा नहीं था। फिर भी जिस प्रकार घने जंगल में रहने वाले भील कुमार एकलव्य ने द्रोणाचार्य की धनुर्विद्या अपने आप सीख ली थी, उसी प्रकार पहाड़ी जवानों ने शांत, असहयोग के युद्ध की विद्या गाँधी जी के नाम पर स्वयं ही सीख ली और रक्तपात की एक भी घटना अपनी ओर से पैदा न होने देने की सावधानी रखते हुए जी-जान से उन्होंने बड़े-बड़े अधिकारियों से मोर्चा लिया। बागेश्वर के पास पुण्य सलिला सरयू में खड़े रह कर अंजलि से सूर्य भगवान को अर्ध्य चढ़ाते हुए , उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मर जायेंगे, परन्तु बेगारी जुल्म को जरा भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। इन सबका आत्म बल इतना ऊँचा सिद्ध हुआ कि तत्काल बेगारी के असुर को कुमाऊँ प्रदेश से विदा लेनी पड़ी। गाँव-गाँव में प्रत्येक घर के ऊपर बेगारी की बारी का जो क्रम बना हुआ था उस क्रम वाली बहियों को सरयू जल में समाधि दे दी गई और ब्रिटिश सेना के गोरे सैनिकों का अत्याचार भी बेगारी को पुनः चालू नहीं करा सका।इस प्रकार भयानक पशुबल के सामने पहाड़ी भाइयों के आत्मबल ने शत प्रतिशत विजय पाई।"
"इस घटना के आठ वर्ष बाद गाँधी जी ने अल्मोड़ा की यात्रा की। बागेश्वर में हजारों लोग गाँधी जी के दर्शन के लिए इकट्ठे हुए। सबके मन में यह भावना थी कि गाँधी जी ने अपने जादू से पुरखों के जमाने से चली आ रही बेगारी को दूर कर दिया।ऐसे गाँधी जी के नाम की जय पुकारने और उनका चरण स्पर्श करने के लिए लोगों में बड़ी उत्सुकता थी। दूसरी ओर गाँधी जी इतने बड़े जन समाज की भीड़ को अपने ह्रदय से झुक-झुक कर प्रणाम कर रहे थे, क्योंकि उस समाज ने अपने अंदर जागती हुई आत्मा का श्रद्धा से आसरा लिया था और अपने आत्म तेज से घोर संकट को निर्मूल किया।"
आलेख : श्री प्रयाग पाण्डे