Ghee Sankranti: स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का लोकपर्व ।

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Ghee Sankranti Festival: पिछले कुछ वर्षों से एक ख़ास शब्द की चर्चा रही है वह है 'इम्युनिटी' (Immunity) यानि रोग प्रतिरोधक शक्ति। जिसे बूस्ट करने के लिए इस समय विश्व की पूरी मानव जाति अनेक दवाओं से लेकर योग आदि का सहारा ले रही है। आयुर्वेद की विभिन्न जड़ी-बूटियों के अलावा घी (Ghee) को भी लोग आज इम्युनिटी बूस्टर (रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला) के रूप में उपयोग करने लगे हैं।


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घी में एन्टीऑक्सीडेंट पाए जाते हैं। जिनसे रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। इसके अलावा घी मनुष्य को बौद्धिक और शारीरिक रूप से मजबूत करता है। ये बातें उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों को सदियों से ज्ञात थीं इसीलिये पहाड़ी अंचलों में घी एक पौष्टिक आहार के रूप में सदियों से इस्तेमाल होते आ रहा है। यहाँ घी का इस्तेमाल अपने हर व्यंजनों के अलावा सीधे खाकर भी किया जाता है। जमे घी और गुड़ की डली को मिलाकर यहाँ लोगों में बाँटने की भी एक ख़ास परम्परा है। किसी उत्सव, धार्मिक आयोजन, कृषि कार्य के शुभारम्भ में घी-गुड़ का वितरण शुभ माना जाता है। घी को यहाँ के लोगों के बल, बुद्धि और ओजस्वी होने का उदाहरण भी कहा जा सकता है। घी की महत्ता को बनाये रखने और सभी लोगों तक इसके महत्वों को पहुँचाने के उद्देश्य से उत्तराखण्ड में सदियों से एक ख़ास त्यौहार भी मनाने की परम्परा है। जिसे हम घी-त्यार या घी संक्रांति के नाम से जानते हैं। जिसमें इस पर्व पर घी खाने की अनिवार्यता है। यह त्यौहार आज भी पूरे उत्तराखण्ड में बड़े हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। 

पहाड़ के लोगों का मुख्य व्यवसाय सदियों से ही पशुपालन और कृषि रहा है। प्रकृति के साथ उनका अटूट सम्बन्ध है। इसीलिए उनके सभी त्यौहार प्रकृति, कृषि और पशुपालन से जुड़े हुए हैं। इन्हीं से सम्बंधित हरेला त्यौहार से यहाँ लोकपर्वों / परम्पराओं को मनाने का शुभारम्भ हो जाता है। इसके बाद घी-त्यार की बारी आती है। जो स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का पर्व है। यह पर्व कुमाऊँ में 'घ्यू-त्यार' और गढ़वाल में 'घिया संक्रांति' के नाम से जाना जाता है। 

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उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचल में घी-त्यार हिंदी माह भाद्रपद की संक्रांति (1 गते/पैट) को मनाया जाता है। यह त्यौहार हरेला त्यौहार की तरह ही ऋतु आधारित है। हरेला जहाँ ऋतु परिवर्तन और बीजों के अंकुरित होने का सूचक है वहीं घी-त्यार अंकुरित हो चुकी फसलों में बालियां आने पर मनाया जाता है। यह मौसम बारिश का होता है जिसमें विभिन्न रोग और व्याधियां होने की संभावना रहती है। अपने को सुदृढ़, स्वस्थ, निरोगी रखने के लिए यहाँ के लोगों ने घी-त्यार जैसे लोकपर्वों की शुरुवात की जिसमें घी खाने की अनिवार्यता है। 


घी-त्यार के समय पहाड़ों में लोगों के आँगन-सागबाड़ी नए-नए बरसाती सब्जियों से भरी रहती है। पिनालू के गाबे (नए-नए पत्ते), कोमल तोरियां इस पर्व के दिन खाने के लिए तैयार हो चुकी होती हैं। गोठ में गाय, भैंस वर्षा ऋतु की नयी हरी घास खाकर लोगों को भरपूर दूध देती हैं। पहाड़वासी इस समय अपने में परिपूर्ण होता है। अपने लहलहाते खेतों, गोठ के तंदुरुस्त और दुधारू मवेशियों, पेड़ों में पकने को तैयार फलों के बीच जब उसके लोकपर्व मनाने का समय आये तो वह उसे पूरे हर्षोल्लाष के साथ मनाता है। इस पर्व पर वह अपने को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और अपनी खुशहाली को यूँ ही बनाये रखने की कामना करता है। 


घी संक्रांति (घी-त्यार) पर घी की अनिवार्यता: 

इस दिन पहाड़वासी अपने को स्वस्थ, निरोगी, बल, बुद्धि और ओज से परिपूर्ण रखने के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों को उपयोग करने का सन्देश देता है। वह इस पर्व पर अनिवार्य रूप से घी में पकवान बनाता है और घी को ग्रहण करता है। घी-त्यार पर घी को घुटनों, कोहनी, ठोढ़ी और सिर पर भी चुपड़ा जाता है। कहावत है जो घी-त्यार पर घी नहीं खाता है वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बनता है। 

मान्यता है घी-त्यार के दिन अखरोट में घी का संचार होता है। घी त्यार के बाद ये पुष्ट और खाने लायक हो जाते हैं।  इसीलिये यहाँ अखरोट घी-त्यार के बाद ही खाये जाते हैं। 

घी-त्यार पर खीर, हलवा, पूड़ी के अलावा बेडू पूड़ी ( उड़द की भरवां पूड़ी ) और पिनालू के गाबे विशेष रूप से बनाये जाते हैं। इस दिन घी को अनिवार्यता के साथ किसी न किसी रूप में ग्रहण किया जाता है। 


ओलगा देने की परम्परा- 

कुमाऊँ में घी-त्यार को ओलगिया के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन कुल पुरोहित अपने यजमानों को फल इत्यादि और शिल्पज्ञ लोगों को अपनी कारीगरी भेंट करते हैं। जिसे ओग/ओलग देना कहते हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह प्रथा समाप्ति के कगार पर है। कहीं-कहीं आज भी इस प्रथा का निर्वहन हो रहा है। शिल्पकार बंधु लोगों को लोहे के बने उपकरण जैसे दराती, कुदाल, चिमटा, जांती आदि भेंट करते हैं। इसके बदले उन्हें अनाज और रूपये प्रदान किये जाते हैं। 

ओलगा/ओग देने की यह परम्परा चंद राजवंश के समय से चली आ रही है। चंद राजाओं के समय में शिल्पकार राजा को अपनी कारीगरी भेंट करते थे और उसे राजा द्वारा पुरस्कृत किया जाता था। अन्य लोग भी दरबार में राजा तक फल, दूध, दही, घी, साग-सब्जियां पहुंचाते थे। यह ओग /ओलगा देने की प्रथा कहलाती थी।

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झोड़ा-चांचरी गाने की परम्परा

कुमाऊं में घी-त्यार पर झोड़ा-चांचरी गाने की भी परम्परा है। लोग भोज के बाद किसी निश्चित जगह पर जैसे मंदिर पटांगण (प्रांगण), किसी गैर (समतल मैदान) या ठुली बाखई ( बड़े घरों के समूह) में एकत्रित होते हैं और सामूहिक रूप में झोड़ा-चांचरी का गायन करते हैं। लेकिन समय के साथ-साथ लोगों के रहन-सहन में बहुत से बदलाव आये हैं। वह समाज से जुड़ने के बजाय अब अपने परिवार तक ही सीमित रहने लगा है। इसका प्रभाव घी-त्यार पर होने वाले सांस्कृतिक मिलन पर भी पड़ा है और चांचरी गाने की यह परम्परा अधिकतर गांवों में दम तोड़ चुकी है। 


इसके विपरीत सुखद दृश्य बागेश्वर जनपद स्थित कपकोट के दूरस्थ इलाकों से प्राप्त होते हैं। यहाँ के दुलम, बदियाकोट, कर्मी, बघर, हरकोट, शामा, भनार आदि गांवों में आज भी घी-त्यार पर झोड़ा-चांचरी का गायन होता है। लोग बच्चे, जवान, बूढ़े सब मिलकर अपनी लोक विरासत को संजोने का काम करते हैं। 

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हमारे पुरुखों ने जो बातें कही हैं, जो त्यौहार-मेले बनाये हैं, जो खानपान तय किये हैं उनके पीछे कुछ तथ्य /आधार हैं। उन्होंने अपने को स्वस्थ, निरोगी रखने के लिए, बुद्धिमान और ओजस्वी बनाये रखने के लिए घी-त्यार जैसे लोकपर्वों को मनाने की परम्परा शुरू की थी। भले ही अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बनने की कहावत हमें हास्यास्पद लगे लेकिन अपने को स्वस्थ, निरोगी और ओजस्वी न बना पाए तो निश्चित ही अगले जन्म में क्या इसी जीते जी हम घोंघे की तरह जियेंगे, हमारे स्वास्थ्य से सम्बंधित ऐसी व्याधियां होगी जिन्हें हमें जीवन भर उसके दुष्परिणामों को झेलना होगा। 


इसलिए आईये घी-त्यार के महत्वों को अपनायें और अपने लोकपर्वों को उसी उत्साह से मनायें जैसे हमारे पुरखे हमें देकर गए हैं। 

यह भी पढ़ें - घी-त्यार : उत्तराखण्ड का एक लोकपर्व। 

घी-संक्रांति के बधाई सन्देश यहाँ से डाउनलोड करें -  

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