तीलू रौतेली-गढ़वाल की लक्ष्मीबाई - जो 15 वर्ष की उम्र में ही रणभूमि में कूद पड़ी थी।
तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ?
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। किन्तु गढ़वाल में आठ अगस्त को ही उनकी जन्म जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है कि उनका जन्म आठ अगस्त,1661 को हुआ था। उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था। कैंत्यूरी राजा धाम शाही की सेना के साथ तीलू रौतेली ने युद्ध किया था। इसी धाम शाही ने गढ़वाल के राजा मानशाह पर आक्रमण किया था जिसके कारण तीलू रौतेली के पिता, भाइयों और मंगेतर को जान गंवानी पड़ी थी। पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने 'गढ़वाल का इतिहास' नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि राजा मानशाह 1591 से 1610 तक गढ़वाल के राजा रहे और 19 साल राज करने के बाद 34 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गये थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि तीलू रौतेली का जन्म ईस्वी सन 1600 के बाद हुआ था।
सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुराड़ गांव व परगना चौंदकोट गढ़वाल में जन्मी तीलू गोर्ला रौत थोकदार और गढ़वाल रियासत के राजा फतेहशाह के सेनापति भूप्पू रावत की बेटी थी। इनकी माता का नाम मैनावती था।
15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की मंगनी इडा गांव (पट्टी मोंदाडस्यु) के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ हो गयी थी। तीलू के दो बड़े भाई थे पत्वा और भक्तू। तीलू बचपन से ही तलवार ढाल के साथ खेलकर बड़ी हुई थी। बचपन में ही तीलू ने अपने लिए सबसे सुंदर घोड़ी 'बिंदुली' का चयन कर लिया था। 15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवारबाजी के सारे गुर सिखा दिए थे।
दुर्भाग्य का ऐसा कुचक्र चला कि तीलू के पिता, मंगेतर और दोनों भाई लड़ते लड़ते युद्ध भूमि में ही शहीद हो गए। तब प्रतिशोध की अग्नि से उत्प्रेरित होकर वीरबाला तीलू रौतेली शत्रु सेना से बदला लेने के लिए अपनी दो सहेलियों बेल्लु और देवली तथा ‘बिंदुली’ नाम की घोड़ी को साथ लेकर युद्ध के मैदान में कूद पड़ी। सात वर्ष तक लगातार युद्ध लड़ते हुए वीरांगना तीलू रौतेली ने खैरागढ, टिकोली खाल, उमटागढ़ी, सल्ट महादेव, भिलण भौण, ज्युन्दालु, चौखुटिया, सराईखेत, कालिंका खाल आदि स्थानों के युद्ध जीतकर इतिहास के स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया। युद्धों के दौरान तीलू रौतेली के अपने कई प्रियजनों और सहेलियों ने भी प्राण न्योछावर किए। ‘भिलण भौण’ के युद्ध में तीलू की दो सहेलियों ने अपने प्राण न्योछावर किए और ‘सराई खेत’ के युद्ध में तीलू की घोड़ी ‘बिंदुली’ शत्रु सेना का निशाना बनी। एक दिन जब तीलू रौतेली तल्ला कांडा के समीप पूर्वी नयार नदी में स्नान कर रही थी तब शत्रु के एक सैनिक ने पीछे से तलवार के घातक प्रहार से दिनांक 15 मई 1683 को इस बीरबाला का धोखे से प्राणान्त कर दिया।
“आ तीलू को डंका बजीगे मरदो
ओ तीलू को झंडा फहरैगे मरदो।
रण भेरी मारू बाजीगे मरदो
ढोल दमौऊं गाजीगे मरदो।
घिमंडु की हुड़की कड़कीगे मरदो
बल्लू की डौरी भड़कीगे मरदो
शूर शार्दूल ऐ गैने मरदो।”
तीलू रौतेली की याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है। तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में 'थड्या' गीत गाये जाते हैं-
"ओ कांडा का कौथिग उर्यो ओ तिलू कौथिग बोला धकीं धै धै तिलू रौतेली धकीं धै धै।"
जय सिंह रावत ‘जसकोटी’ ने भी अपनी स्वरचित कविता में तीलू रौतेली के वीरता पूर्ण चरित्र के माध्यम से गढ़ की नारी शक्ति का साहसी,पराक्रमी और मर्दानगी भरा चरित्र अंकित किया है। कविता की निम्नलिखित पंक्तियां दर्शनीय हैं –
“धन धन छै तु गढ़ की नारी
जै जै हवेली तेरी तीलू रौतेली
गवे दीन्द तेरी बीरता मर्दानी
ग्वला रौतुंकी छाई तु निर्भीक सैलाणी
गढ़ म तेरी अलग च मिसाल
लड़ाई लाड़ तिन बिन हथयार
मन म राई तेरी येकी ठान
कैन्तुरा राजा क जैड मिटाण ”
तीलू रौतेली की याद में गढ़वाल में रणभूत भी नचाया जाता है। डा. शिवानंद नौटियाल ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल के लोकनृत्य' में लिखा है कि ''जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रणभूत जैसे शिब्बू पोखरियाल,घिमंडू हुडक्या,बेलु-पत्तू सखियाँ,नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है। सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं।'' पौड़ी गढ़वाल के ब्लाक बीरोखाल में वीरांगना तीलू रौतेली की याद में बनाई गई प्रतिमा मन में देशभक्ति का जोश भर देती है।
साभार : डा.मोहन चन्द तिवारी