बदियाकोट आदिबद्री भगवती मंदिर - चौदह पट्टी दानपुर का सामूहिक पीठ।

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हिमालयी वास्तुकला में तैयार होता आदिबद्री माँ नंदा भगवती धाम बदियाकोट (बागेश्वर)


उत्तराखंड के मुख्य हिमालय की तलहटी व मध्य हिमालय में स्थानीय जनता मां गौरा को नन्दा देवी के रूप में कुल देवी मानती है। समूचे क्षेत्र में मां भगवती नन्दा के छोटे-बड़े मंदिर हैं। इन मन्दिरों में भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को पूजा होती है। इसी क्रम में मल्ला दानपुर व तल्ला दानपुर में मां भगवती के मुख्य तीन सिद्धपीठ माने जाते हैं। आदिबद्री मां नन्दा पीठ बदियाकोट, सिद्धपीठ बैछमधार सरयू घाटी तथा मां नन्दा सिद्धपीठ पोथिंग। इन मन्दिरों में नन्दा अष्टमी को पूजा की जाती है। 

बदियाकोट मंदिर: जहाँ नंदा ने कन्या रूप में दर्शन दिए- 

इन्हीं में बदियाकोट स्थित शक्तिपीठ समूचे चौदह पट्टी दानपुर का सामूहिक पीठ माना जाता है। यह शक्तिपीठ उसी स्थान पर स्थित है जहां पर माताजी ने बंड चमोली गढ़वाल से पीछे आये दो पुरूषों को कन्या के रूप में दर्शन दिये थे। मान्यता है गढ़वाल में माँ नंदा भगवती ने मृग का रूप धारण किया। इस मृग का शिकार करने के लिए छलि और बलि दो भाईयों इनका पीछा किया, जो पीछा करते-करते बागेश्वर के बदियाकोट तक पहुँच गए। जब ये एक छोटी पहाड़ी के पास पहुंचे तो माँ नंदा ने उन्हें एक कन्या के रूप में दर्शन दिए और उन दोनों पुरुषों को पूरा वृतांत बताया। कन्या इस स्थान पर मंदिर बनवाने और उन्हें यहां रहकर सेवा भक्ति करने का आदेश देकर अंतर्ध्यान हो गई। आगे चलकर इन दो पुरूषों के छः-छः पुत्र हुए। ये 'बारह बदकोटी' के नाम से विख्यात हुए। कालान्तर में जहां भी माता के शक्तिपीठों की स्थापना हुई, वहां इन्ही के वंशज दानू लोग पुजारी हुए।

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पुराणों में वध कोट-  

माँ भगवती द्वारा दैत्यों का वध करने के कारण पुराणों में इस क्षेत्र को वध कोट के नाम से वर्णित किया गया है। कहा जाता है माँ नंदा भगवती ने निशुम्भ नामक दैत्य का वध इसी मंदिर के समीप किया था। जबकि शुम्भ दैत्य का वध सुमगढ़ नामक स्थान पर किया था। इसी कारण इसे बाद में सुमगढ़ नाम से जाना जाने लगा।


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प्राचीन भगवती मंदिर-बदियाकोट 













आठ वर्ष में आठ्यौं और चार वर्ष में घर-आठ्यौं

बदियाकोट आदिबद्री भगवती मंदिर में हर आठ वर्ष के अन्तराल में आठ्यौं अर्थात् जात का आयोजन होता है। हर चार साल में घर-आठ्यौं यानी छोटी जात होती है और हर बारह वर्ष में नन्दा जात अर्थात माल जातरा होती है। इससे पूर्व दाणू देवता पट्टी में जाते हैं। चार पट्टी दानपुर के अलावा जोहार मुनस्यारी भी जाते हैं। वहां के लोगों द्वारा देवी माता को चढ़ावा दिया जाता है तथा सभी को मां की आठ्यौं में सम्मिलित होने का न्यौता दिया जाता है। आठ्यौ के समय देव-डांगर लोग तीन माह का व्रत लेते हैं फिर नंदा कुण्ड सुन्दरढूंगा जाकर पूजा अर्चना करके नन्दा अष्टमी को वापस आते हैं। यहाँ गढ़वाल से आने वाले पूजार्थियों के लिए पूजा का समय निर्धारित है। मंदिर में माँ नंदा के पूजा-अर्चना के साथ ही उनके धर्मभाई लाटू और तिब्बती हूंण देवता की पूजा भी की जाती है। 

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भाद्रपद नवरात्र में सजा माँ नंदा का दरबार


मंदिर को गूंठ देने की परम्परा-

ब्रिटिश काल में इस बदियाकोट भगवती मंदिर को गूंठ भी दी गयी थी। ऐसा कहा जाता है पिण्डारी से पशु चुगान कर का कुछ अंश इस मंदिर को भेंट किया जाता था। इस मन्दिर में परम्परा के अनुसार माता की पूजा में दोफाड़ के कालाकोटी, पेठी के देवली, सापुली व अन्य स्थानों में बसे दानू, जोहार मुनस्यारी के लोग तथा पिण्डर घाटी के खाती, वाछम, सोराग, तीख, डौला, किलपारा, कुवारी, कालौ, बोराचक, झारकोट सहित गढ़वाल के लोग शामिल होते हैं तथा श्रमदान पूजा सामग्री व आर्थिक सहयोग करते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध पीठ अनेकता में एकता व सामाजिक सद्भाव का प्रतीक माना जाता है।

बागेश्वर जिला मुख्यालय से बदियाकोट भगवती मंदिर की दूरी करीब 58 किलोमीटर है। यहाँ जाने के लिए छोटे वाहन आसानी से उपलब्ध रहते हैं। 
 
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Adibadri Bhagwati Mandir Badiyakot

मन्दिर का जीर्णोद्धार कर भव्य रूप दिया गया है - 

आदिबद्री मां नंदा भगवती बदियाकोट मंदिर के नवीनीकरण कर भव्य रूप दिया गया , जो हिमालयी वास्तुकला के हिसाब से परम्परागत रूप बना है। मन्दिर में पुराकालीन स्थापत्यकला के नमूने की एक सुन्दर खोली का निर्माण किया गया है, जो मन्दिर की भव्यता को और बढ़ा रहा है। मन्दिर की भव्यता व पुराकालीन शिल्प की सामग्री बाहर से आयी है। भव्यद्वार के लिए देवदार कौसानी से व सफेद पत्थर सोराग से आया है। पहले इस मन्दिर को थौरूप यानी लकड़ी के तख्तों से बना हुआ छत वाला मन्दिर कहते थे। 
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कई ग्राम सभाओं का सहयोग -

मल्ला दानपुर के खाती, वाछम, सोराग, तीख, डौला, किलपारा, कुवारी, कालौ, बोराचक, झारकोट गांवों के सम्मानित जनता ने मन्दिर के जीर्णोद्धार में सहयोग किया है। इसके अलावा समूचे जनपद बागेश्वर और बाहर की जनता ने भी मंदिर निर्माण में अपना सहयोग किया है। 

सोराग गांव के लोगों को परम्परा के अनुसार छत में धूरा का लठ्ठा ले जाना पड़ता है। यह उनका परम्परागत अधिकार दिया गया है। सोराग गांव माता जी का मायका माना जाता है। यह काम सोराग के ग्रामीणों ने अपने मेहनत से पूर्ण किया है। इसके अलावा पेठी के देवली, सापुली के दाणों, खाती, वाछम, तीख, डौला, किलपारा, कुवारी, बोरा,समडर, भराकाने तथा चमोली के लोग भी अपनी परम्परा को निभाने आये हैं। 


 

विशेष आभार : श्री दीवान सिंह दाणों