Gariya Bagwal | गढ़िया बग्वाल– उत्तराखण्ड का एक पारिवारिक पर्व।

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Gariya Bagwal Festival (Kapkote)


Gariya Bagwal: उत्तराखंड में बग्वाल का त्योहार बड़े हर्षोल्लाष के साथ मनाया जाता है। बागेश्वर के कपकोट ब्लॉक के पोथिंग समेत कई गांवों में दीपावली पर्व के ठीक एक माह बाद मंगसीर बग्वाल त्योहार मनाया जाता है, जिसे लोग ‘गढ़िया बग्वाल’ के नाम से जानते हैं। यह त्योहार यहाँ करीब 400 वर्ष पूर्व से राजपूत परिवार 'गढ़िया' लोगों के द्वारा मनाया जाता है।

गढ़िया बग्वाल मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात से आरंभ होकर अमावस्या की सुबह संपन्न होता है। अन्य पर्वों की तरह ही ‘गढ़िया बग्वाल’ के दिन तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं। अपने कुल देवी-देवताओं और अपने पितरों को पूजा जाता है। पालतू जानवरों को रोली का टीका लगाकर सींगों पर तेल लगाया जाता है। तत्पश्चात जानवरों को जौ के लड्डू यानि ‘पिण्ड’ खिलाये जाते हैं। परिवार के लोग एकत्रित होकर सामूहिक भोज करते हैं। बग्वाल के दिन सभी गढ़िया परिवार के लोगों द्वारा अपनी बेटियों को भोज के लिए ससुराल से मायका जरुर बुलाया जाता है, किसी कारणबस बेटियां नहीं आ पाती हैं तो परिवार का एक सदस्य बेटी के ससुराल (घर) त्यौहार पर बनाये गए पकवान पहुँचाने की परम्परा है। 
 
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इस त्यौहार पर ब्याही बेटियां बड़े उत्साह के साथ अपने मायके आते हैं। बहुत बार बेटियों को कहते हुए सुना कि उन्हें इस त्यौहार का बेसब्री से इन्तजार रहता है। पहाड़ की बेटियों के लिए यह पर्व ‘आराम का पर्व’ भी है। क्योंकि इस पर्व के आने तक वे अपने सम्पूर्ण कार्य जैसे फसल समेटना, बुवाई करना, घास काटना इत्यादि पूर्ण कर चुकी होती हैं और वे बेफिक्र होकर मायके का आनंद ले सकती हैं।

‘गढ़िया बग्वाल’ कपकोट ब्लॉक क्षेत्र के पोथिंग, गड़ेरा, तोली, लीली, डॉ, लखमारा, छुरिया, बीथी-पन्याती, कन्यालीकोट, कपकोट, पनौरा, फरसाली, चीराबगड़, जारती, भयूँ, सुमटी-बैसानी, नान-कन्यालीकोट आदि गांवों के गढ़िया परिवार के साथ-साथ मित्र परिवार के लोग मानते हैं।

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कुमाऊँ संग्रहालय अल्मोड़ा में उपस्थित इतिहास की पुस्तकों से प्राप्त जानकारी के अनुसार सैकड़ों वर्ष पहले मुगलों के आक्रमण के बाद राजस्थान से  विस्थापित गढ़िया और उनके साथ की जातियां मुख्य रूप से  गढ़वाल के चमोली और कुमाऊं के बागेश्वर ज़िले में बसे हैं। संग्रहालय में उपस्थिति इतिहास के अनुसार कुमाऊँ में बसने के दो तीन दशक के बाद से यह त्यौहार मनाये जाने की जानकारी मिलती है। समाज में इसके प्रचलन को लेकर कई लोकक्तियां भी प्रचलित है। परंतु इसकी पूर्ण जानकारी इतिहास में भी वर्णित नहीं है।

‘गढ़िया’ लोगों द्वारा अपना त्यौहार ‘गढ़िया बग्वाल’ मनाने पीछे लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। लोग कहते हैं कि जब दीपावली के बाद द्वितीया पर्व (च्युड़ी बग्वाल) मनाया जाता है तब शायद गढ़िया परिवार का कृषि कार्य पूरा नहीं हुआ होगा क्योंकि इस समय खेतों में गेहूं, जौ इत्यादि की बुवाई का काम चरम पर होता है। इसी व्यस्तता के कारण गढ़िया परिवार के पूर्वजों ने इस त्यौहार को बाद में मनाने का निर्णय लिया।
 
वहीं यह त्योहार उत्तराखंड के उत्तरकाशी मंगसीर की बग्वाल और हिमाचल में बूढ़ी दिवाली के नाम से जानते हैं। गढ़िया बग्वाल की तरह की इन पर्वों में गौ-वंश की पूजा की जाती है। सामूहिक लोकगीत और नृत्य का आयोजन होता है।